1857 की क्रांति: दिल्ली शहर की दीवारों को तोप से उडा अंग्रेजी फौज के सिपाही आखिरकार शहर में दाखिल हो ही गए। क्रांतिकारियों समेत लाल किले की सेना के कमांडर मिर्जा मुगल ने 8 सितंबर को अपने अफसरों को लिखाः “काफिर अब निशाने पर आ गए हैं। आओ आकर हमला करो। हम दीवारों के ऊपर से अच्छी तरह गोलीबारी कर सकते हैं। अब अपना फर्ज अदा करने में कोई देर या लापरवाही नहीं होनी चाहिए क्योंकि अब दुश्मन हमारे दरवाजे पर है। और हर एक को हौसले के साथ अपनी कमर कस लेनी चाहिए।

और क्रांतिकारियों  को भी अब करीब से अपने कुल्हाड़े इस्तेमाल करने का मौका मिल गया। बख्त खां के एक जिहादी इम्दाद अली खान ने बड़ी बहादुरी दिखाई। ‘हालांकि वह दुश्मनों में घिर गया था लेकिन, बड़ी मुश्किल से बच निकला।

उस वक्त उसके साथ ‘मौलवी नवाजिश अली और उनके दो हज़ार आदमी’ और हाल ही में ग्वालियर से आई हुई एक ‘खुदकुश गाजियों’ की टोली भी थी, जिसने कसम खाई थी कि वह कुछ नहीं खाएंगे और तब तक लड़ते रहेंगे जब तक काफिरों के हाथों शहीद नहीं हो जाते। ‘क्योंकि जो जिहाद करने आए हैं उन्हें खाने की कोई जरूरत नहीं है।’

एक और बागी जिसने उस जमाने में नामवरी हासिल की वह था सार्जेंट गॉर्डन जो एक अंग्रेज़ था लेकिन उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जो सिपाहियों के साथ शाहजहांपुर से आया था। सईद मुबारक शाह का कहना था कि गॉर्डन ने “अंग्रेजों के खिलाफ तोपें लगायीं और चलायीं और उसका निशाना बिल्कुल सही था। इससे सिपाही इतने खुश हुए कि उन्होंने उसको नजर पेश की लेकिन उसने कहा कि ‘अब बहुत देर हो चुकी है, मैं कुछ नहीं कर सकता।

अगर तुमने शुरू से मेरे सुझाव पर अमल किया होता तो अंग्रेजों की तोपें एक फुट भी आगे नहीं बढ़ पातीं। अब जब मामलात इतने बिगड़ गए हैं तो तुम चाहते हो कि मैं उन्हें और आगे बढ़ने से रोक हूं। यह नामुमकिन है, लेकिन मैं भी तुम्हारे साथ ही मरूंगा’।” सरफाज अली 10 सितंबर को दरबार गए और कहा कि मुजाहिदीन बहुत शुक्रगुज़ार हैं कि आखिरकार उनकी ‘बहादुरी और लगन’ को स्वीकार किया जा रहा है, और कि अब वह आने वाली लड़ाई में और भी ज़्यादा बहादुरी से हिस्सा लेने के इच्छुक हैं।”

हर्वी ग्रेटहैड का अंदाज़ा था कि अगस्त में बहुत से सिपाहियों के छोड़कर चले जाने की वजह से क्रांतिकारियों  की तादाद काफी कम हो गई थी और अब वह बची हुई फौज में आधी से कुछ ही कम संख्या में थे। उस वक़्त अंदाजन 60,000 फौज दिल्ली में बाकी थी।’ लेफ्टिनेंट कॉगहिल का कहना था कि जिहादी कम से कम आधी तादाद में थे। उसने अपने भाई को लिखाः ‘दुश्मनों के 25 या 30,000 सिपाही थे और 30,000 विद्रोही थे।  

अगर क्रांतिकारियों  की फौज का नक्शा बदल रहा था, तो अंग्रेजों की फौज भी बदल रही थी। जिसमें 4-5 देसी हिंदुस्तानी थे। दिल्ली का गदर हिंदुस्तानी सिपाहियों और अंग्रेजों के बीच शुरू हुआ था, लेकिन आखिर में यह एक मिली-जुली फौज जिसमें कोई आधे मुसलमान गैर-फौजी जिहादी थे और उनके मुकाबले में अंग्रेजी फौज के बीच हो गया था जिसमें किराये के सिख, मुसलमान पंजाबी और पठान शामिल थे।

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