1857 की क्रांति: दिल्ली में बगावत के दरम्यान हिंदू-मुस्लिम एकता भी प्रभावित हुई। विलियम डेलरिंपल ने अपनी किताब आखिरी मुगल में इस पर विस्तार से लिखा है। हालांकि यह भी सच है कि क्रांति में दोनों ने मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया। कई घटनाएं तो ऐसी भी हैं जिन्होंने विद्रोह करने वालों को शर्मिंदा भी किया। अपनी जान पर खेल जाने वाली बहादुरी ने सिपाहियों को भी शर्मिंदा कर दिया।
सईद मुबारक शाह को यह देखकर बहुत ताज्जुब हुआ और इससे प्रभावित होकर वह लिखते हैं:
“बहुत से मुजाहिदीन आमने-सामने की लड़ाई में मसरूफ थे और बहुत से मारे भी गए। देखा गया कि अक्सर रामपुर की दो बूढ़ी औरतें क्रांतिकारियों के सामने नंगी तलवारें हाथों में लेकर उनको ललकारतीं और अगर सिपाही पीछे रह जाते, तो उनको खूब ताने देतीं, बुजदिल कहतीं और आवाजें लगातीं कि देखो किस तरह औरतें आगे बढ़ती हैं, जहां उनको जाने की हिम्मत नहीं है: ‘हम बगैर डरे गोलियों की बौछार में पहुंच जाते हैं जहां से तुम भाग खड़े हुए’।
सिपाही बहाने बनाते और कहते कि हम बारूद लेने जा रहे हैं लेकिन औरतें जवाब देतीं कि तुम यहां रुको और लड़ाई करो हम तुम्हारे लिए गोला बारूद ले आएंगे। और अक्सर वह उनके लिए तोपखाने से बारूद ले भी आतीं और बगैर किसी खौफ के गोलियों की बौछार में घुस जातीं और खुदा के फजल से उन्हें कभी गोली नहीं लगी। जब भी उन गाजियों की टोली हमला करने जाती, तो हमेशा यह औरतें उनके आगे जातीं।
जल्द ही अंदाज़ा हो गया कि रिज पर बार-बार हमलों की नाकामी का कारण बहादुरी की कमी नहीं, बल्कि रणनीति, योजना या आपसी तालमेल न होना था। हर्वी ग्रेटहैड का कहना है कि “यह बगावत बहुत जल्द खत्म हो जाती, लेकिन लगातार नए बागी उसमें शामिल हो रहे थे लेकिन उनमें किसी खास मकसद या सोच-समझकर लड़ने की कमी थी और इसीलिए वह मारे गए। जिस कमजोरी की वजह से वह शहर का प्रशासन दुरुस्त नहीं कर पाए थे उनके पास एक भी जिम्मेदार या समझदार प्रबंधक नहीं था उसी की वजह से उनकी एकजुट होकर और जमकर लड़ाई करने की कोशिशें नाकाम रहीं।