1857 की क्रांति: 16 सितंबर को लाल किले के सामने भीड जमा था। बडी संख्या में बागी एकत्र हुए थे। सब के सब जफर से खुद जवाबी हमले का नेतृत्व करने की मांग कर रहे थे। अब जफर के लिए हकीकत का सामना करने का लम्हा था। लेकिन खुद उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें।
ईद के बाद से बादशाह अपने शहर और किले की तबाही के लिए क्रांतिकारियों से नफरत और मिर्जा मुगल की लड़ाई का बेदिली से समर्थन करने के बीच झूल रहे थे। कभी वह अपने आपको यकीन दिलाने लगते थे कि वह उस जद्दोजेहद के महज एक निष्पक्ष गवाह हैं जिससे उनको कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन अब यह तटस्थता मुमकिन नहीं थी।
चाहे वह कितने ही असमंजस में और उलझे हुए हों, अब उनको यह फैसला करना ही था कि वह जवाबी हमले का नेतृत्व करेंगे या साफ इंकार करेंगे। सईद मुबारक शाह लिखते हैं:
“बादशाह सलामत को अपनी जान का खतरा था इसलिए वह टालते रहे। लेकिन लोगों ने उनसे कहा कि ‘आपका खात्मा नजदीक है-आपको कैद कर लिया जाएगा। एक शर्मनाक और बेइज्जती की मौत से क्या फायदा? आपको चाहिए कि लड़ते हुए शहीद हों और तारीख में अपना नाम अमर कर दें।
बादशाह ने ऐलान किया कि वह दिन के 12 बजे खुद फौज का नेतृत्व करेंगे।
“जैसे ही बादशाह का फौज का नेतृत्व करने का इरादा लोगों को मालूम हुआ, और ज़्यादा बागी शहरी किले के सामने जमा होने लगे। कोई 70 हजार का मजमा हो गया। थोड़ी देर में शाही पालकी किले के बड़े दरवाजे से निकलती नजर आई। सारे सिपाहियों और शहरियों ने उसके साथ आगे बढ़ना शुरू किया। लेकिन उनको अंग्रेजी तोपखाने से 200 गज पहले रुकना पड़ा क्योंकि जो भी आगे बढ़ा वह उनकी गोलियां खाकर गिर गया, जो सड़क पर बारिश की तरह गिर रही थीं। “बादशाह की पालकी उस वक्त तक किले के एक और दरवाज़े पर पहुंच चुकी थी। वह बराबर लोगों को यह देखने भेज रहे थे कि उनकी फौज कितनी आगे बढ़ चुकी है। लेकिन वह अभी तोपों के पास नहीं पहुंचे थे, और उसी वक्त हकीम अहसनुल्लाह खां जबरदस्ती लोगों को हटाते हुए अपने शाही आका के पास पहुंचे और उनसे कहा कि अगर वह एक कदम आगे गए तो जरूर गोली खा जाएंगे क्योंकि अंग्रेज़ बंदूकें लिए विभिन्न घरों में छिपे हैं।