1857 की क्रांति : बगावत जैसे जैसे लंबी खिंचती जा रही थी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का सब्र जवाब देता जा रहा था। जुलाई के आखिर तक अंग्रेजों पर फतह पाना ज़्यादा से ज़्यादा मुश्किल दिखाई देने लगा था। अब तो यह लगता था कि इस वक़्त सबसे अहम इस ताने-बाने को सुलझाना था, जिसकी वजह से दिल्ली जुड़ी हुई थी यानी हिंदू-मुस्लिम एकता। अगर यह बिगड़ गया तो दोनों जानते थे कि इसकी बहुत महंगी कीमत चुकानी पड़ेगी।

जैसे-जैसे जुलाई का महीना गुजरता गया जफर और भी ज्यादा निराश और जज़्बाती तौर से बगावत से दूर होते गए। उनकी वफादारी हमेशा से उनकी नस्ल और शहर से रही थी और दोनों को इस हंगामे से कोई फायदा नहीं पहुंच रहा था बल्कि उल्टा यह लग रहा था कि इससे दिल्ली तबाह हो जाएगी और तीन सौ साल हुकूमत करने के बाद मुगलों का भी पतन हो जाएगा।

जब सरवरुल मुल्क के चचा ने ‘पूरी दरबारी खिलअत पहने, सिर पर पगड़ी और कमर में पेटी लगाए’ बादशाह की खिदमत में हाजिर होकर उनसे कुछ सिपाहियों की दर्खास्त की ताकि वह अंग्रेजों से लड़ सकें, तो ज़फ़ ने जवाब दिया, “मेरे पास तुम्हें देने को कोई सिपाही नहीं है। मैं 80 साल का हूं और बीमार हूं। यह लड़ाई मेरी नहीं है। अगर तुम्हें लड़ने की ख़्वाहिश है, तो उन सिपाहियों के सरदारों के पास जाओ और उनसे बात करो।”!!!

ज़फर अब अपनी बीवी जीनत महल पर भी भरोसा नहीं कर सकते थे, जो अपने शहर वाले घर चली गई थीं क्योंकि उन्हें अपने पति की क्रांतिकारियों  की तरफदारी की सियासत नापसंद थी, जिसके नतीजे वह समझती थीं। अब वह अपने खास सलाहकार महबूब अली खां से भी मशवरा नहीं कर सकते थे, इसलिए जफर अब अजीब सा बर्ताव करने लगे थे जैसे वह अपने होशो-हवास खो बैठे हों। आखिर वह 80 साल के थे और बगावत से पहले ही से वह सठियाने लगे थे।

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