1857 की क्रांति: अंग्रेजों ने दिल्ली पर आंशिक रूप से कब्जा कर लिया था। 18 सितंबर की दोपहर को सूरज पर पांच मिनट तक पूर्ण ग्रहण रहा। सारे शहर में एक मनहूस सा अंधेरा छाया रहा, और फिर आहिस्ता आहिस्ता से रोशनी वापस आयी।
अंग्रेज सिपाही इस घटना से बदहवास हो गए क्योंकि उन्हें इसके बारे में किसी ने बताया नहीं था। लेकिन हिंदुओं के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण अवसर था। आज भी, हिंदुस्तान में ऊंची जात के कुछ हिंदू सूरज ग्रहण के वक़्त बाहर नहीं निकलते हैं और ग्रहण से चौबीस घंटे पहले और चौबीस घंटे बाद तक मंदिरों को बंद करके ताला डाल दिया जाता है।
मुगल दिल्ली की समधर्मी संस्कृति में, और खासकर मुगल दरबार में जहां हिंदू ज्योतिषियों का काम करते थे, वहां यह ग्रहण एक बहुत डरावना महत्व रखता था, इसे एक बड़ा अपशकुन माना जाता था और दैवीय नाराजगी का सबसे बड़ा संकेत समझा जाता था।
महल की डायरी में लिखा है कि जब 2 जुलाई 1852 को ऐसा ही ग्रहण लगा था, तो जफर ने उसका तोड़ करने के लिए खुद को विभिन्न किस्म के अनाजों, कीमती पत्थरों और मक्खन वगैरा में तुलवाकर वह सब गरीबों में बांट दिया था। हालांकि ग्रहण के वक्त सफर शुरू करना मनहूस समझा जाता था, लेकिन इस मौके पर यह माना गया कि यह बाकी बचे हुए सिपाहियों के लिए हारती लड़ाई को छोड़कर, इस बर्बाद और उजड़े शहर से भाग जाने का इशारा था।”
उस शाम जब बारिश होने लगी, तो सिपाहियों ने आगरा की सड़क की राह ली, जिस पर पहले ही से दिल्ली के गिरते-पड़ते लोगों की भीड़ थी, जो आगे बढ़ते अंग्रेजों और उनके सिख, पठान और गोरखा साथियों के आने से पहले जल्दी से जल्दी फरार हो जाना चाहते थे।
चार्ल्स ग्रिफिथ्स ने लिखा हैः “अंधेरा हो जाने से उनके अंधविश्वासी डरों को और भी हवा मिली, और वह और भी जल्दी में उस शहर को छोड़ने की कोशिश में लग गए, जिस पर खुदा का कहर टूट पड़ा था। उस रात हमें सूचना मिली कि दक्षिण से बागी बड़ी तादाद में शहर छोड़कर जा रहे हैं और बरेली व नीमच के दस्ते ग्वालियर की तरफ रवाना हो गए हैं। तभी से यह साफ जाहिर हो गया कि अब दुश्मनों की हिम्मत टूट चुकी है और हमारे मोर्चों पर अब हमले भी बहुत कम हो गए। “दिन में लोग बहुत कम तादाद में कश्तियों का पुल पार कर रहे थे क्योंकि वह हमारी तोपों की जद में था लेकिन 19 की रात को जब हम चर्च के अहाते में बैठे किले और सलीमगढ़ के ऊपर गोले फटते देख रहे थे, तो हमको उनके अंतराल में दूर से कुछ मिली-जुली आवाजें सुनाई दे रही थीं जैसे किसी बड़ी भीड़ की बड़बड़ाहट हो। यह आवाजें नदी की तरफ से आ रही थीं, जहां हजारों आदमी कश्तियों का पुल पार करके दूसरी तरफ जा रहे थे, उस शहर को छोड़कर जो जल्द ही हमारे हाथ आने वाला था।