संवेदनशील, सहयोगात्मक और पीस पत्रकारिता हमारा उद्देश्य
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
SAARC जर्नलिस्ट फोरम – इंडिया चैप्टर द्वारा आयोजित इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी की शुरुआत एक गहन संवेदना और दृढ़ प्रतिरोध के साथ हुई, जिसमें जम्मू-कश्मीर के पहलगाम क्षेत्र में हाल ही में हुए आतंकी हमले की सर्वसम्मति से निंदा की गई। इस कायरतापूर्ण कुकृत्य ने न केवल निर्दोष नागरिकों की जान ली, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता, मानवता और संवाद के मूल्यों पर भी आघात पहुँचाया।
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में वक्ताओं ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आतंकवाद किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकता, और ऐसे हमले संवाद, लोकतंत्र एवं शांति की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं। विशेष रूप से, पत्रकारिता समुदाय को ऐसे हमलों के विरोध में एकजुट होकर, सच को सामने लाने की आवश्यकता है।
वक्ताओं ने यह भी आग्रह किया कि सरकारें और अंतरराष्ट्रीय निकाय ऐसे हिंसक कार्यों के विरुद्ध मिलकर नीति निर्धारण करें ताकि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। वक्ताओं ने साझा किया कि किस प्रकार पत्रकारिता सीमाओं से परे जाकर सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक संवाद और शांति निर्माण में योगदान दे सकती है।
भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भूटान जैसे देशों में पत्रकारिता को कई बार राजनीतिक दबावों और आंतरिक संघर्षों का सामना करना पड़ा है, लेकिन इसके बावजूद मीडिया ने जनमत निर्माण, लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सार्क देशों के प्रतिनिधियों ने यह साझा किया कि पत्रकारों का आपसी सहयोग, क्रॉस-बॉर्डर पत्रकारिता प्रोजेक्ट्स, और साझा मंचों के ज़रिए संवाद की संस्कृति को मजबूती दी जा सकती है। दक्षिण एशिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न संगोष्ठी के एक अन्य प्रमुख सत्र में “दक्षिण एशिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर केंद्रित विमर्श हुआ, जिसमें यह प्रश्न उठाया गया कि क्या पत्रकारिता वास्तव में स्वतंत्र है।

वक्ताओं ने बताया कि कैसे विभिन्न देशों में पत्रकारों को सेन्सरशिप, धमकियों, फर्जी मुकदमों और शारीरिक हमलों का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद अनेक पत्रकार सत्य के पक्ष में डटे रहते हैं।
वक्ताओं ने यह भी रेखांकित किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल पत्रकारों का अधिकार नहीं, बल्कि यह नागरिकों का भी मूलभूत अधिकार है – जिसे संरक्षित रखना किसी भी लोकतंत्र की जिम्मेदारी है। इस सत्र के अंत में यह प्रस्ताव रखा गया कि दक्षिण एशियाई देशों को मिलकर एक संयुक्त “मीडिया फ्रीडम चार्टर” की दिशा में कार्य करना चाहिए।
आतंकवाद की निंदा
संगोष्ठी में आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट वैश्विक दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया गया।
विशेषकर पत्रकारों पर होने वाले आतंकी हमलों और धमकियों को लेकर चिंता व्यक्त की गई। दुनिया भर में कई पत्रकार केवल इसलिए मारे गए क्योंकि वे सच बोलने की कोशिश कर रहे थे।
वक्ताओं ने दो टूक कहा कि आतंकवाद के विरुद्ध केवल सैन्य कार्रवाई ही नहीं, बल्कि वैचारिक, सामाजिक और संवादात्मक मोर्चे पर भी संघर्ष जरूरी है – और इस मोर्चे पर पत्रकारों की भूमिका केंद्रीय है।
विचार हुआ कि मीडिया को केवल खबरों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे शांति और करुणा के विचार को भी समाज में स्थापित करना होगा। पत्रकार सुरक्षा अधिनियम की आवश्यकता पर बल दिया गया।

संगोष्ठी के समापन सत्र में “पत्रकार सुरक्षा अधिनियम” की आवश्यकता पर जोर दिया गया। वक्ताओं ने साझा किया कि भारत सहित दक्षिण एशिया के कई देशों में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर कोई समर्पित कानून नहीं है। हर वर्ष सैकड़ों पत्रकार जान जोखिम में डालकर रिपोर्टिंग करते हैं, कई बार सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ से उन्हें खतरा होता है। ऐसे में एक ठोस और प्रभावशाली पत्रकार सुरक्षा अधिनियम की मांग अब केवल पत्रकारों की नहीं, बल्कि नागरिक समाज की भी हो गई है।
प्रतिनिधियों ने कहा कि यह अधिनियम केवल सुरक्षा ही नहीं, बल्कि पत्रकारों के कार्य की गरिमा और स्वतंत्रता की भी रक्षा करेगा। यह प्रस्ताव भी पारित किया गया कि सरकारों को इस दिशा में तत्काल पहल करनी चाहिए, और पत्रकार संगठनों को मिलकर इस पर संयुक्त आंदोलन चलाना चाहिए।
पत्रकारिता की भाषा में संवेदनशीलता, संयम और शालीनता का प्रयोग
अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में पत्रकारिता की भाषा को लेकर एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया गया। वक्ताओं ने कहा कि आज के दौर में जब सूचनाएं त्वरित गति से प्रसारित होती हैं, तब पत्रकारों की भाषा शैली और कथन की मर्यादा अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।
भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं होती, बल्कि वह दृष्टिकोण और मूल्यों की भी वाहक होती है। इसलिए पत्रकारों को संवेदनशील, संतुलित, संयमित और शालीन भाषा का प्रयोग करना चाहिए। विशेषकर जब वे समाज के किसी दुखद पहलू, किसी आपदा या संघर्ष को कवर कर रहे हों, तब भाषा का संयम और भी आवश्यक हो जाता है।
वक्ताओं ने उदाहरणों के माध्यम से बताया कि कैसे कुछ चैनल TRP की दौड़ में भाषा की मर्यादा तोड़ देते हैं, जिससे पीड़ितों की गरिमा को ठेस पहुँचती है और समाज में विभाजन गहराता है। सत्र में यह भी चर्चा हुई कि भाषा की संवेदनशीलता ही पत्रकार की संवेदनशीलता का संकेत है।

अतः मीडिया प्रशिक्षण में भाषा की नैतिकता और मानवतावादी दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सातवें सत्र का फोकस इस विचार पर रहा कि पत्रकारिता किस प्रकार दक्षिण एशियाई देशों के बीच शांति और सहयोग को बढ़ावा दे सकती है। वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि पत्रकारिता महज़ आलोचना या विरोध की नहीं, बल्कि सेतु निर्माण की भी शक्ति रखती है।
यदि मीडिया सीमाओं के पार एक-दूसरे के समाज, संस्कृति, संघर्ष और उपलब्धियों को सही ढंग से प्रस्तुत करे, तो आपसी समझ बेहतर हो सकती है। इससे राजनैतिक कटुता कम होगी और जनसामान्य में पारस्परिक विश्वास पनपेगा।
इस अवसर पर कई ऐसे प्रोजेक्ट्स का उल्लेख हुआ जो भारतीय और पाकिस्तानी पत्रकारों द्वारा संयुक्त रूप से चलाए गए हैं। ऐसे प्रयासों से यह प्रमाणित होता है कि संवाद और सहयोग की राह पत्रकारों के प्रयासों से प्रशस्त हो सकती है।
सत्र का निष्कर्ष यह रहा कि पत्रकारिता को संघर्ष की खबरें दिखाते हुए भी आशा, समाधान और सह-अस्तित्व की संभावना प्रस्तुत करनी चाहिए।
पूल पत्रकारिता की शुरुआत
संगोष्ठी के आठवें बिंदु में ‘पूल पत्रकारिता’ की अवधारणा पर चर्चा हुई, जिसे आज की व्यावहारिक ज़रूरत बताया गया। पूल पत्रकारिता का आशय है – संसाधनों, रिपोर्टों और कवरेज को साझा करना, विशेष रूप से संवेदनशील या सीमित पहुंच वाले क्षेत्रों में। वक्ताओं ने बताया कि कैसे प्राकृतिक आपदाओं, सीमावर्ती क्षेत्रों या संघर्ष प्रभावित इलाकों में एक ही खबर को दर्जनों चैनल या संस्थान अलग-अलग कवर करते हैं, जिससे न केवल आर्थिक संसाधनों की बर्बादी होती है, बल्कि खबर की सटीकता और गंभीरता भी प्रभावित होती है। पूल पत्रकारिता न केवल कार्यकुशलता बढ़ाती है, बल्कि सूचना की एकरूपता, संतुलन और सत्यता भी सुनिश्चित करती है। साथ ही, यह एकजुटता और सहयोग की संस्कृति को भी बढ़ावा देती है, जो संगोष्ठी के मूल विषय – शांति और सहयोग – से सीधे जुड़ा है। वक्ताओं ने सुझाव दिया कि SAARC देशों के बीच पत्रकारिता पूल बनाए जाएं, ताकि क्षेत्रीय संकटों, जलवायु मुद्दों या मानवीय आपदाओं पर मिलकर कवरेज हो सके।
सीमा पार की सकारात्मक न्यूज़
नवम सत्र में एक अत्यंत प्रेरणादायक विषय पर विमर्श हुआ – “सीमा पार की सकारात्मक खबरें।” वक्ताओं ने स्पष्ट किया कि नकारात्मक और उत्तेजक खबरों के कारण ही सीमावर्ती देशों के बीच शंकाएँ और दुश्मनी की भावना बढ़ती है। यदि मीडिया यह निर्णय करे कि वह सीमापार की अच्छी खबरें भी दिखाएगा – जैसे कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सामाजिक विकास, शिक्षा, खेल, या मानवीय सहयोग – तो एक नई सोच की शुरुआत हो सकती है। पाकिस्तान में एक हिंदू डॉक्टर का योगदान, नेपाल में किसी भारतीय संस्थान की मदद, या अफगानिस्तान में भारतीय शिक्षक का कार्य – ये वो कहानियाँ हैं जो दिलों को जोड़ सकती हैं। घोषणा पत्र में
अफगानिस्तान में पत्रकारों पर हो रहे लगातार हमलों की तीव्र निंदा की गई। यह बताया गया कि वहां पत्रकारों के लिए कार्य करना जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है। तालिबान शासन के बाद से अफगान पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित किया जा रहा है, महिला पत्रकारों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है, और पत्रकार संगठनों को जबरन बंद किया गया है।
प्रतिनिधियों ने यह साझा किया कि कैसे स्वतंत्र प्रेस पर अंकुश लगाकर एक राष्ट्र को मौन और अंधकार में ढकेला जा रहा है। यह केवल अफगानिस्तान की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए चेतावनी है। वक्ताओं ने UN, UNESCO और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों से आग्रह किया कि अफगान पत्रकारों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। भारतीय चैप्टर के अध्यक्ष सुधांशु अनिरुद्ध ने कहा कि भारत शांति माना चैन वाला देश है और हम इस समारोह से दुनिया भर में शांति का संदेश देंगे।
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