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कभी बी. आर. चोपड़ा से लेकर शक्ति सामंत तक ने Amitabh bachchan को दे डाली थी एक्टिंग छोड़ घर वापस जाने की सलाह

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अमिताभ बच्चन के संघर्ष के दिनों में जिन निर्माताओं ने उन्हें नकारा, वही आगे चलकर उनके टैलेंट के कायल हुए और अपनी फिल्मों में अहम भूमिकाएँ दीं

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

वे गर्दिश के दिन थे। संघर्ष के दिन।

Amitabh Bachchan: अमिताभ के भाई अजिताभ बंटी को उनकी कंपनी ने मद्रास भेज दिया था। अब अमिताभ बंबई में बिल्कुल अकेले थे। कुछ थोड़े-से मित्र थे। अब्बास साहब, जलाल आगा और अनवर अली।

बंबई आने के बाद उन्होंने नर्गिस दत्त से भी निरंतर संपर्क बनाए रखा था। उन्हीं के प्रयत्नों से सुनील दत्त ने उन्हें अपनी निर्माणाधीन फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ में एक भूमिका दे दी थी। लेकिन वह एक बड़े बजट की और भव्य फिल्म थी और उसकी शूटिंग शुरू होने में अभी कुछ समय था।

अमिताभ बिल्कुल खाली थे। काम से भी, और जेब से भी। उनका ड्राइविंग लाइसेंस उनके पास था। कलकत्ता में वे अकसर सोचा करते थे कि अगर बंबई में उन्हें फिल्मों में काम न मिला तो वे एक टैक्सी ड्राइवर बन जाएँगे। लेकिन इस विकल्प पर अमल करना कोई आसान काम न था।

वे दिन बंबई की खाक छानने और स्टूडियो-दर-स्टूडियो घूमने के दिन थे। कभी अनवर के साथ तो कभी अकेले। और वे दिन खाली जेब दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करने के दिन भी थे। अकसर जलाल आगा और टीनू आनंद भी उनके साथ होते, जो अब्बास साहब के दफ्तर वाली बिल्डिंग में ही रहते थे।

जलाल आगा उन दिनों अपनी एक विज्ञापन कंपनी भी चलाते थे। अमिताभ बहुत ज्यादा आर्थिक तंगी में होते तो उनके किसी रेडियो-विज्ञापन में अपनी आवाज दे देते। उन्होंने निर्लोन, हॉर्लिक्स जैसे कई विज्ञापन किए थे। उन दिनों इस काम के सिर्फ पचास रुपए मिलते थे, लेकिन गर्दिश के उस दौर में इतने ही काफी थे।

अमिताभ उन दिनों मैरिन ड्राइव में रहते थे, जबकि अनवर अपने भाई महमूद के एक फ्लैट में अंधेरी में। लेकिन वे दोनों दिन भर साथ रहते, और अकसर देर रात तक भी। काम न होने के कारण दोनों ही खाली जेब थे। अमिताभ को सहनायक और चरित्र भूमिकाओं की तलाश थी, जबकि अनवर को अपने भाई की तरह कॉमेडियन की भूमिकाओं की।

कई बार वे दोनों ही भूखे होते, लेकिन भोजन के लिए आधी रात का इंतजार करते क्योंकि वार्डन रोड के एक रेस्तरां में आधी रात के बाद आधे दामों पर भोजन मिलता था।

अमिताभ संघर्ष के उस दौर में छोटे-बड़े सभी प्रोड्यूसरों से मिले थे। लेकिन कोई कहता था कि तुम जरूरत से ज्यादा लंबे और दुबले हो, तो कोई अपनी सहानुभूति दर्शाते हुए और सलाह देते हुए कहता था, “क्यों अपना समय बर्बाद कर रहे हो? यह लाइन तुम्हारे लिए नहीं है। दिल्ली लौट जाओ और अपने पिता की तरह कविताएँ लिखो!”

इन निर्माताओं में शक्ति सामंत, प्रमोद चक्रवर्ती, बी. आर. चोपड़ा जैसे कई बड़े नाम भी शामिल थे। ये और बात है कि अमिताभ बच्चन के शुरुआती संघर्ष के दौर में उन्हें जिन निर्माताओं ने नकारा, उन्हीं के साथ आगे चलकर उन्होंने कई यादगार फिल्में कीं। शक्ति सामंत के साथ उन्होंने ‘अमानुष’ (1975), ‘अर्जुन पंडित’ (1976) और ‘अलाप’ (1977) जैसी संवेदनशील और प्रभावशाली फिल्में कीं।

प्रमोद चक्रवर्ती के साथ उनकी ‘बॉम्बे टू गोवा’ (1972) एक शुरुआती हिट साबित हुई, जिसके बाद ‘आनंद आश्रम’ (1977), ‘बरसात की एक रात’ (1981) और ‘जग्गू’ (1985) जैसी फिल्में आईं।

वहीं बी. आर. चोपड़ा के प्रोडक्शन में बनी ‘द बर्निंग ट्रेन’ (1980) और ‘बागबान’ (2003) जैसी मल्टीस्टारर और भावनात्मक फिल्मों ने अमिताभ को एक अलग ऊंचाई दी।

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