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कभी राजेश खन्ना, शशि कपूर की शूटिंग देखने के लिए Amitabh bachchan को करनी पड़ती थी मशक्कत

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जब राजेश खन्ना और शशि कपूर की एक झलक पाने के लिए अमिताभ बच्चन सुबह-सुबह जुहू बीच तक जा पहुँचे—ये थे उनके संघर्ष और सीखने के दिन

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Amitabh bachchan : 1969-70 के उस दौर में बंबई का फिल्म उद्योग भी एक अलग तरह के संघर्ष से जूझ रहा था। अचानक ही एक बड़े परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी थी। दिलीप कुमार और राज कपूर ही नहीं, बल्कि उनके बाद की पीढ़ी के शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार और सुनील दत्त भी अपने कैरियर में संकट का सामना कर रहे थे।

नई पीढ़ी उनके साथ अपनी मध्यवर्गीय दुनिया और अपनी मध्यवर्गीय आकांक्षाओं को जोड़कर नहीं देख पा रही थी और उनकी फिल्में लगातार पिट रही थीं।

हमेशा शम्मी कपूर को लेकर फिल्में बनाने वाले शक्ति सामंत (पिछली फिल्म ‘एन ईवनिंग इन पेरिस’) ने अपनी नई फिल्म ‘आराधना’ में एक उभरते हुए नायक राजेश खन्ना को अवसर दिया था।

सुनील दत्त के साथ ‘गुमराह’, ‘वक्त’ और ‘हमराज’ जैसी फिल्में बना चुके बी.आर. चोपड़ा अब उसी लड़के को लेकर ‘इत्तेफाक’ बना रहे थे। सुनील दत्त के साथ ‘मिलन’ बना चुके एल.वी. प्रसाद अब एक संघर्षरत नायक संजीव कुमार के साथ ‘खिलौना’ बनाने में व्यस्त थे।

राजेंद्र कुमार के साथ ‘मेरे महबूब’ और दिलीप कुमार के साथ ‘संघर्ष’ बना चुके एच.एस. रवेल अब राजेश खन्ना के साथ ‘महबूब की मेहंदी’ बनाने की तैयारियों में जुटे हुए थे।।

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पिछले एक-डेढ़ वर्ष में दो नायक बड़ी तेजी से उभरे थे, और उनकी सफलता के पीछे उनके चेहरे-मोहरे की बजाय उनकी अद्भुत अभिनय क्षमता का हाथ था। या शायद उनका साधारण चेहरा-मोहरा ही उनकी सफलता का राज था-संजीव कुमार और राजेश खन्ना!

बंबई में रहने के कारण अमिताभ ने इन दोनों के उदय को बहुत नजदीक से देखा था। उनकी ‘सात हिंदुस्तानी’ के आसपास ही राजेश खन्ना की ‘आराधना’ और फिर ‘दो रास्ते’ रिलीज हुई थी, और देखते-ही-देखते वे कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए थे।

उन्हें हिन्दी फिल्मों का नया ‘सुपरस्टार’ कहा जाने लगा था। 1970 के दौरान भी ‘बंधन’, ‘खामोशी’, ‘सफर’, ‘सच्चा झूठा’ और ‘इत्तेफाक’ जैसी फिल्मों से उनकी यह उठान जारी रही थी।

संजीव कुमार को नूतन (‘देवी’), माला सिन्हा (‘कंगन’) और वहीदा रहमान (‘मन-मंदिर’) जैसी बड़ी अभिनेत्रियों के साथ काम करने का अवसर मिलता रहा था, और 1970 के मध्य में ‘खिलौना’ की जबर्दस्त सफलता के बाद उन्हें अग्रिम नायकों की श्रेणी में गिना जाने लगा था।

अमिताभ खुद भी इन दोनों के प्रशंसक थे। खासकर राजेश खन्ना पर वे उसी तरह मुग्ध थे जैसे भारत के अन्य दर्शक। जब भी उन्हें पता चलता कि किसी स्टूडियो में राजेश खन्ना की शूटिंग है तो वे उन्हें देखने भर के लिए वहाँ जा पहुँचते। इसी तरह शशि कपूर को देखने के लिए वे कई बार सुबह-सुबह उठकर जुहू बीच जा पहुँचते, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि शशि कपूर हर सुबह वहाँ टहलने जाते हैं।

वे दिन जितने संघर्ष भरे थे, उतने ही रोमांचक भी। बंबई को जानने और समझने के दिन। इसकी सड़कों और गलियों को पहचानने के दिन। इसके लुभावने पर्यटन स्थलों के साथ रोमांस के दिन। सस्ते रेस्तरांओं और अच्छे दोस्तों की तलाश के दिन।

कभी-कभी फिल्म निर्माताओं का रवैया देखकर शहर से भाग खड़े होने की इच्छा भी होती। लेकिन कुछ था जो उन्हें रोक लेता-शायद उनका दृढ़-संकल्प, या फिर उनका अप्रतिम पुरुषार्थ।

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