हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य का संस्थापक जहीरुद्दीन बाबर संगीत प्रेमी था। तुजुक ए बाबरी के अध्ययन से मालूम होता है। कि जब वह काबुल के बाग़ों में दोस्तों के साथ नदी के किनारे बैठकर जाम-ओ-मीना से दिल बहलाता था तो हिन्दुस्तानी संगीत का भी आनंद उठाता था। हिन्दुस्तान में बाबर को न वह शांति प्राप्त हुई और न ही उसके शासन में वह स्थिरता आ पाई कि किसी भी कला का विकास हो सकता। उसके बेटे हुमायूं को संगीत-प्रेम विरासत में मिला था। वह सप्ताह में दो दिन संगीत गोष्ठियां करता था। मांडव की विजय के बाद हुमायूं युद्धबंदियों का वध करवाना चाहता था जिनमें सुल्तान बहादुरशाह गुजराती का दरबारी गायक उस्ताद बीजू भी शामिल था। संयोग से एक हिन्दू उधर से गुजरा और उसने बीजू को पहचानकर हुमायूं के हुजूर में पेश किया। राजा की सिफ़ारिश पर हुमायूं ने बीजू की ओर ध्यान दिया और उसे कुछ सुनाने के लिए कहा। बीजू ने पद गाकर सुल्तान और दरबारियों को बहुत प्रभावित किया।

सुल्तान पर, जो उस वक़्त लाल लिबास पहने और नंगी तलवार लिए बैठा था, इतना असर हुआ कि उसने सुर्ख लिबास उतारकर सब्ज लिबास पहन लिया और बादशाह ने कैदियों की रिहाई का हुक्म दे दिया। मौका मिलते ही हुमायूं ने बीजू को अपने दरबार में एक सम्मानपूर्ण पद प्रदान किया और उसे पुरस्कार आदि से सम्मानित किया। लेकिन कुछ समय के बाद बीजू भाग निकला और अपने भूतपूर्व स्वामी बहादुरशाह गुजराती के पास पहुंच गया। उसे देखते ही बहादुरशाह ने कहा, ‘मैंने अपनी खोई हुई दौलत पा ली।’ हुमायूं को जब बीजू के भागने की सूचना मिली तो उसने दुःखद स्वर में कहा, “बदक़िस्मत था जो भाग गया। अगर हमारी ख़िदमत में रहता तो इतना पाता कि सुल्तान बहादुरशाह को भूल जाता।” यही गायब ‘बैजू बावरा’ के नाम से मशहूर है।

हुमायूं के निर्वासन के दौरान हिन्दुस्तान में शेरशाह, इस्लाम शाह और मुहम्मद आदिलशाह एक-दूसरे के बाद तख्त पर बैठे। मुहम्मद आदिलशाह संगीत का संरक्षक भी था और एक उच्च कोटि का गायक भी। उसने ग्वालियर में राजा मानसिंह तोमर की परंपरा को जीवित रखा और गवैयों के प्रशिक्षण में बढ़-चढ़कर भाग लिया। मियां तानसेन ने भी उसी से शिक्षा प्राप्त की थी।

अकबर का दरबार तो संगीत का विकास-स्थल था। अबुलफ़ज़्ल के कथनानुसर छब्बीस गवैये और साजिद शाही दरबार में नौकर थे उनमें मियां तानसेन, सुखान खां, साहब खां, चांद खां, तान तरंग खां, सरवर ख़ां और मियां लाल खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। तानसेन के बारे में अबुलफजल लिखता है, ‘गुजश्ता हज़ार बरस में उस जैसा गवैया पैदा नहीं हुआ।’ अबुलफजल के पिता शेख मुबारक खुद संगीत के नामवर उस्ताद थे। अकबर के जमाने में एक और संगीतज्ञ मुल्ला अबुल क़ादिर बदायूंनी था। वह मुतखवउत्तवारीख का लेखक था और हिन्दुस्तानी और ईरानी संगीत का पूरा अधिकार रखता था। वह खुद भी ऊंचे दर्जे का बीननवाज़ था।

तानसेन का असली नाम त्रिलोचन दास था। वह जाति के गौड़ ब्राह्मण थे और उनके पिता मकरंद पांडे ग्वालियर निवासी थे मौजा भेंट जो ग्वालियर से सात मील की दूरी पर पूर्व में स्थित है, तानसेन का जन्म स्थान है। यह भी कहा जाता है कि तानसेन मौजा चौबुरजी में पैदा हुए। उनकी जन्मतिथि के बारे में यक़ीन से कुछ नहीं कहा जा सकता। मगर यह अनुमान किया जाता है कि वह 1531 ई. में पैदा हुए। मकरद पांडे का यह पुत्र बड़ी उम्र में हजरत मुहम्मद गौस की दुआ से पैदा हुआ था। पीर साहब ने यह भी पेशीनगोई की थी कि यह बालक संसार में अमर हो जाएगा। जन्म से एक-दो बरस बाद ही मकरंद पांडे ने उसे हज़रत ग़ौस को भेंट कर दिया कि आपने ही इसे दिया है, आप ही इसे संरक्षण में ले लें। इस प्रकार तानसेन बचपन ही से हज़रत मुहम्मद ग़ौस की देखभाल में पलते रहे। ऐसा मालूम होता है कि बाद में उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और संगीत जगत में मियां तानसेन के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

तानसेन को गायक संगीत सम्राट मानते हैं। उन्होंने संगीतशास्त्र की शिक्षा ग्वालियर के संगीत विद्यालय से प्राप्त की थी। उन्होंने बाबा हरिदास से मथुरा में भी शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने बख़्शू नायक की लड़की से भी संगीत के कुछ सूत्र सीखे, मगर उसने उनकी ओर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। हक़ीक़त तो यह थी कि उनमें ईश्वर प्रदत्त गुण थे। वे संगीत के नायक के अतिरिक्त एक फ़कीर भी समझे जाते थे। दीपक और मल्हार रागों में उनका कोई सानी नहीं था। तानसेन ने बहुत से नए प्रयोग किए और एक राग दरबारी का नहड़ा अकबर के सामने पेश किया और असावरी और गांधारी को मिलाकर जोगिया शब्द बढ़ाया और मल्हार में नहड़े को शामिल करके मियाँ की मल्हार नाम रखा। मियाँ की तोड़ी और मियाँ की सारंग भी तानसेन के प्रयोग हैं, जो बहुत प्रसिद्ध हैं।

तानसेन और बैजू बावरा

तानसेन और बैजू बावरा के मुक़ाबले का क़िस्सा बड़ा मशहूर है। बैजू बावरा ने तानसेन को नीचा दिखाने की ठान ली और ग्वालियर पहुँच गए। तानसेन अपने घर मौजा भेंट में थे। उन तक पहुँचने के लिए नदी पार करनी पड़ती थी। नदी पर धोबिनें कपड़े धो रही थीं और बैजू बावरा को भी अपने मैले कपड़े धुलवाने का ख्याल आया। एक धोबन से पूछा तो उसने पलटकर जवाब किया कि कपड़े ‘हाल’ के पानी में धुलवाओगे या ‘पाल’ के? बैजू बावरा धोबन का प्रश्न नहीं समझे तो उसने बताया कि ‘हाल’ के पानी से आशय वह पानी है जो अभी आसमान से बरसे और ‘पाल’ के पानी का अभिप्राय है यही नदी का बहता हुआ पानी। बैजू बावरा ने ‘हाल’ के पानी से कपड़े धोने की फ़रमाइश की। धोबन ने मल्हार राग छेड़ दिया। थोड़ी ही देर में पानी बरसने लगा। जब कपड़े धुल गए तो धोबन ने गाना बंद कर दिया। धूप खिल गई और धोबन ने कपड़े सुखाकर बैजू बावरा के हवाले कर दिए। बैजू बावरा दंग रह गए और उन्होंने धोबन से पूछा कि तुम किसके कपड़े धोती हो? जवाब मिला तानसेन के।

बैजू बावरा ने सोचा जिस तानसेन की धोवन ऐसा गाती है, तो तानसेन का क्या कमाल होगा? उन्होंने सोचा कि चलो अब आए हैं, तो तानसेन से मिल ही लें। उनके मकान पर पहुँचे। तानसेन ने बड़े आदर-सत्कार से बिठाया और बैजू बावरा की फरमाइश पर गाना सुनाया। बैजू बावरा को गाना उतना नहीं जँचा, जितनी तानसेन की तारीफ़ सुनी थी और उनके दिल में मुक़ाबिला करने की ख्वाहिश फिर पैदा हो गई। उन्होंने जवाब में एक राग छेड़ दिया जिससे जंगल का एक हिरन मस्ती की हालत में आकर बैजू बावरा के सामने आ खड़ा हुआ और सर झुका दिया। बैजू बावरा ने जोश में आकर अपनी माला हिरन के गले में डाल दी और गाना बंद कर दिया। हिरन गाना बंद होते ही चौकड़ियाँ भरता हुआ जंगल की ओर लौट गया। बैजू बावरा ने तानसेन से कहा कि बाबा मैं आपकी नगरी में आकर लुट गया और मेरे गुरु की दी हुई माला हिरन ले गया।

तानसेन बोले उसमें मेरी नगरी का क्या दोष? आपके गाने के असर से हिरन आया था और अपनी माला आपने उसे पहना दी थी। मगर बैजू बावरा तो तानसेन को नीचा दिखाना चाहते थे। उन्होंने इल्ज़ाम तानसेन पर ही धरा। तानसेन भी जोश में आ गए और उन्होंने गाना शुरू कर दिया। बहुत से हिरन वैसी ही मालाएँ गले में पहने सामने आ खड़े हुए। तानसेन बैजू बावरा से बोले कि अपनी माला पहचान कर उतार लो। बैजू बावरा हैरान रह गए कि किस हिरन के गले में से माला उतारें, क्योंकि सबने एक-सी ही मालाएँ पहन रखी थीं। जब बैजू बावरा बेबस हो गए तो तानसेन ने अपना गाना बंद कर दिया। माला वाले हिरन के सिवा सारे हिरन चले गए। तब तानसेन बैजू बावरा से बोले-आपकी माला यह है, उतार लो।

यह भी कहा जाता है कि तानसेन का मुक़ाबिला बैजू बावरा से नहीं हुआ बल्कि गोपाल का मुक़ाबिला बैजू बावरा से महाराजा जम्मू के दरबार में मात खा गया। महाराज ने गोपाल को मृत्युदंड की आज्ञा दे दी। लेकिन बैजू बावरा हुआ और गोपाल ने महाराजा से यह कहकर दंड माफ़ करा दिया कि गोपाल मेरा ही शिष्य है।

तानसेन की मृत्यु-तिथि अधिकांश इतिहासकारों ने 1588 ई. बतायी है। आपका मक़बरा ग्वालियर में है। मक़बरे के करीब एक इमली का दरख्त है जिसके पत्ते गवैये और तवाइफ़्रें इस श्रद्धा से खाती हैं कि उनकी आवाज़ में सुरीलापन आ जाए। यह लोग इसके पत्ते प्रसाद के रूप में बाहर भी ले जाते हैं।

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