वेदान्त और वैष्णव भाव प्राचीन भारत की कला और संस्कृति को सौंदर्य प्रदान करते हैं। जिस युग में सूफी हिन्दुस्तान आए तो उन्होंने भारतीय चिंतन और संस्कृति के सौंदर्य को पूरी तरह अपना लिया। वेदान्त और सूफ़ीमत एक दूसरे के इतने निकट आए कि दर्शन का इतिहास लिखने वालों में अधिकांश का यही मत है कि तसव्वुफ़ पर वेदांत और वैष्णव भाव की बड़ी गहरी छाप है। वैष्णव प्रेम दर्शन में नारी प्रेमी और पुरुष प्रेमिका है। अपने गुरु से स्त्री की भांति प्रेम-प्रदर्शन वास्तव में वैष्णव भाव का ही एक प्रकार है। इस शैली में खुसरो की एक होली देखिए जिसमें वह अपने मुर्शिद हजरत निजामुद्दीन औलिया से प्रेम व्यक्त कर रहे हैं-

दैया री मोहे भिजोया री

शाह निजाम के रंग में

कपड़े रंगे से कुछ न होत है

या रंग मने तन को डुबोया री दैया री

होली पर भी कई गीत है, भाव वैष्णव है मगर फिर भी हिन्दुस्तानी मुसलमान की कल्पना शैली का आभास विद्यमान है। री मोहे, भिजोया आदि शब्द हिन्दू नारी की अभिव्यक्ति शैली और चरित्र उभारने के लिए लाए गए हैं।

तेरहवीं शताब्दी से लेकर अकबर के काल तक तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पहले की अवधि में दिल्ली की भाषा और बोल-चाल के स्वर में बहुत बड़ा अंतर आ गया था। मुसलमानों की तुर्की और फारसी पर ब्रज भाषा का प्रभाव पड़ने लगा था। अमीर खुसरों ने इसी बोली और हिन्दुस्तानी स्वर शैली में कुछ ऐसे गीतों की रचना की जिन्हें जनसाधारण ने अपनाकर अपने लोकगीतों में शामिल कर लिया। उदाहरणार्थ-

धीरे बहो नदिया मोरे पिया हैं उतरत पार

घी के दिया न बारो हमरे घर आए मुहम्मद बानरा

जो मैं जन त्यों बिछरत हैं सैयां

घुंघटा में आग लगाइ दे त्यों

रख लेव इन चूरियन की लाज मोरे साजना

राष्ट्रीय एकता, हिन्दू-मुस्लिम मेल-मिलाप और परस्पर बंधुत्व भाव को जितना सूफी संतों और मुस्लिम दरवेशों ने बढ़ावा दिया उसका दृष्टांत इतिहास में मुश्किल ही से मिलेगा। उन दरवेशों ने अपनी खानकाह स्थापित की और भाईचारे, समता और न्याय की शिक्षा देते रहे। उस पर गैर-मुस्लिम भारी संख्या में एकत्र होते थे। जो कव्वालियां गाई जाती थीं उनमें राधाकृष्ण और दूसरे धर्मों के देवताओं का जिक्र भी आता था। हर अच्छा कव्वाल हज़रत उस्मान हारुनी का, जो एक अल्लाह वाले बुजुर्ग और शायर थे, यह फ़ारसी क़लाम एक लोकगीत के रूप में गाया करता था

न मीदानम कि आखिर चूं दम-ए-दीदार भी रक्सम

मगर नाजम बई जौंके कि पेश-ए-यार भी रक्सम

तो आ क़ातिल कि अज बहर-ए-तमाशा खून-ए-मन रेजी

मन आं विस्मिल कि जेर-ए-खंजर-ए-खूंखार मी रक्सम’

(मैं नहीं जानता कि मैं अपने यार को देखकर क्यों नाच उठता हूं। मुझे तो इस बात पर ही गर्व है कि यार के सामने नाचने लगता हूं। तू ऐसा कातिल है कि अपने मनोरंजन के लिए मेरा खून बहाता है और मैं ऐसा घायल हूं कि खंजर की धार के नीचे तड़पने में भी मुझे आनंद आता है)।

दिल्ली के सूफी-सन्तों में निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो ऐसी बुजुर्ग और समादृत हस्तियों थीं जिनकी बदौलत जनता, जिसमें हिन्दू-मुसलमान दोनों शामिल थे मजहबी गीतों में रुचि लेने लगी। हजरत निजामुद्दीन औलिया ने रस्म गाकर शुरू की और अमीर खुसरो ने उसके लिए गीत लिखे हिन्दुस्तान की देसी बोलियां में गीत बनाना और गाना हजरत अमीर खुसरों की देन है। जरा ये बोल देखिए-

छाप तिलक सब छीनी रहे

मोसे नैना मिलाय के

खुसरो निज़ाम के बलबल जाऊं

मोहे सुहागन कीनी रे

मोसे नैना मिलाय के

देसी बोलियों के गीतों का रिवाज मुगल परिवार में भी जहांगीर की शादी के उत्सव से शुरू हो गया था। विदाई के समय राजपूतों की तरफ़ से जो गीत गाया गया था, उसके बोल ये थे-

तुम शहंशाह हम आपके दास

रहे करम शाह का टूट न जाए आस

सखी री मोरा बनरा आया सुलतान

मैं तो तिहारे डेरे आई जल्ला———–(जलालुद्दीन अकबर)

यह सुनकर शहंशाह अकबर ने भाव-विह्वल होकर डोले को हाथ लगाया और बोले-

हम शहंशाह सही फिर भी आपके भाई

राजकुमारी है महल की आबरू और चौखट की लाज

महेश्वर दयाल अपनी पुस्तक दिल्ली जो एक शहर है में लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों में जन्म से मृत्यु तक जिन रस्मों का प्रचलन हो गया वे अधिकांशतः मेलजोल और संपर्क का परिणाम थीं, जो दिल्ली सल्तनत से होता हुआ मुग़ल शासन काल तक पहुंचा था। जब अकबर के काल में मुगल शहजादों के विवाह राजपूत सामंतों और राजाओं के यहां होने लगे तो हिन्दू रस्में मुसलमान सामंतों में और भी दृढ़ हो गई। तुर्की और फ़ारसी गीतों के बजाए विदाई के समय ब्रज भाषा और राजस्थानी बोली में गीत गाए जाने लगे। ‘सहजक’ की रस्म और बीबी फातिमा’ की नियाज” का तरीक़ा महारानी जोधाबाई की देन है। मुगल परिवार में युवराज का खतना नहीं होता था। रक्षाबंधन के त्योहार पर राखी बांधी जाती थी। बसंत और दिवाली राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाए जाते थे। हमारे लोकगीतों में इस संबंध और मेल-जोल की बड़ी सबल झलक मिलती है।

लोकगीत वैयक्तिक नहीं सामुदायिक है। इनका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता और ये केवल स्मृति में सुरक्षित रहते हैं। ये साजों के साथ भी गाए जाते हैं और बिना साजों के भी। इनके शब्द और अर्थ की ही भांति इनके वाद्य भी साधारण होते हैं, जैसे ढोलक, मजीरा, रवाना और एकतारा हमारे लोकगीत हमारे निजी और सामाजिक जीवन के इर्द-गिर्द चुने जाते हैं और उन्हीं की झलक प्रस्तुत करते हैं। प्राकृतिक वस्तुओं से प्रेम, लोकगीतों का विशिष्ट लक्षण है। इन गीतों की दुनिया में कौवा यानी कागा चील और मैना संदेशवाहक हैं। देखिए एक विरहा की मारी युवती क्या सोचती है-

काहे सैयां गौन लई आए तुम तो चले परदेस

कह के हाथ चिट्ठी लिख भेजूं कहि के हाथ संदेश

कागा हाथ चिट्ठी लिख भेजूं पंछी हाथ संदेस।

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