बहादुर शाह जफर के बेटे मिर्जा जवांबख्त की शादी ऐतिहासिक रही। हालांकि उस ज़माने की जो सरकारी रिपोर्टें बाकी हैं उनमें कहीं उन झगड़ों का जिक्र नहीं है जो इस शादी की रात को हुई। दरबार के दो मशहूर शायर मोहम्मद इब्राहिम जौक और मिर्जा गालिब में जो झगड़ा हुआ वह कोई ताज्जुब की बात न थी। उन दोनों की हर बात, बर्ताव और रहन-सहन बिल्कुल एक दूसरे से भिन्न थे। जिससे कहा-सुनी होने की हर संभावना थी।

जौक हमेशा सीधी और आसान जबान में शेर कहते, लेकिन गालिब की गजलें अपनी पेचीदगी के लिए बदनाम थीं। जौक आम घराने से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता एक मामूली सिपाही थे। लेकिन रईसाना घराने के मगरूर गालिब के बजाय उनको ज़फ़र की शायरी के उस्ताद का दर्जा मिला। यानी ‘मुगल दिल्ली के शायरे आजम’।

गालिब की शायरी के लिए किसी शायर ने कहा था:

कलामे-मीर समझे और जबाने-मिर्जा समझे

मगर इनका कहा यह खुद ही समझें या खुदा समझे

जौक बहुत ख़ामोश और सीधी-सादी जिंदगी गुजारते थे। वह रात-दिन अपनी शायरी में डूबे रहते और अपने छोटे से कमरे से बहुत कम बाहर निकलते। लेकिन ग़ालिब को अपने बांकपन पर बहुत नाज़ था। शादी के पांच साल पहले गालिब को जुआ खेलने की सज़ा में कैद हुई थी लेकिन वह उसको एक तमगा मानते थे। किसी ने एक बार उनके सामने शेख सहबाई की शायरी की तारीफ की तो गालिब ने फौरन फरमाया, “सहबाई? वह कैसे शायर हो सकता है? न तो उसने कभी शराब पी है और न ही जुआ खेला है। और तो और उसकी कभी महबूब के जूतों से पिटाई भी नहीं हुई और न ही उसने कभी जेलखाने का दरवाज़ा देखा। अपने ख़तों में वह अपने आशिक मिज़ाज होने का बहुत फन से जिक्र करते हैं। अपने एक करीबी दोस्त को, जिनकी माशूक का हाल ही में इंतकाल हुआ था और जिन्होंने ग़ालिब को बहुत दुख के साथ इत्तेला दी थी, वह जवाब देते हैं:

“मिर्ज़ा साहब, हमको यह बातें पसंद नहीं। जवानी की शुरुआत में एक समझदार शख्स ने यह नसीहत की कि हमको संयम मंजूर नहीं, अय्याशी से इंकार नहीं खाओ, पियो, और मौज उड़ाओ। मगर यह याद रहे कि मिस्री की मक्खी बनो, शहद की मक्खी न बनो। सो बंदा इस नसीहत पर अमल कर रहा है। किसी के मरने का वह गुम करे जो आप न मरे… आज़ादी का शुक्र बजा लाओ, गुम न खाओ… जब जन्नत का तसव्वुर करता हूं और सोचता हूं कि अगर गुनाहों की माफी मिल गई और एक महल मिल गया और एक हूर मिल गई हमेशा साथ रहने के लिए, तो इस तसब्बुर से जी घबराता है और कलेजा मुंह को आता है–हे हे वह हूर मुसीबत बन जाएगी, तबीयत क्यों न घबराएगी। वही जमुरदे काख (महल) और वही तूबा (पेड़) की एक शाख, चश्मे बद्दूर, वही एक हूर। भाई होश में आओ, कहीं और दिल लगाओ।

जून को किन ऐ दोस्त दर बार

(ऐ दोस्त हर बहार में नई औरत रख)

कि तक्वीम पारीना नायद व का दर

(कि पिछले साल की जंतरी काम नहीं आती)

शादी के दौरान जो झगड़ा हुआ वह गालिब के कहे हुए सेहरे के एक शेर की वजह से था, जिसमें उन्होंने बड़े गुरूर से कहा था”:

हम सुखन फहम हैं गालिब के तरफदार नहीं देखें इस सहरे से कह दे कोई बढ़कर सेहरा

आजकल के बहुत से आलोचक कहेंगे कि यह घमंड न्यायसंगत था, लेकिन उस वक्त यह लगा कि यह चोट न सिर्फ जौक पर बल्कि ज़फर पर भी थी जो खुद एक बड़े शायर थे और जिन्होंने जौक को ग़ालिब पर तरजीह दी थी और जौक को अपना उस्ताद नियुक्त किया था और यह जताने के लिए न सिर्फ उनको खिलअत अता की बल्कि उनको किले के बाग के अधीक्षक का मानद पद भी दिया और गालिब को जानबूझकर नज़रअंदाज़ कर दिया।”

जफर ने ज़ौक को गालिब के जवाब में सेहरा लिखने पर भी उकसाया। जौक ने भी बहुत उम्दा सेहरा कहा और उसका मक्ता (आख़री शेर) थाः

खुद को शायर जो समझते हैं यह उनसे कह दो

देखो इस तरह से कहते हैं सुखनवर सेहरा आजाद

जो जौक के शागिर्द और तरफदार थे, का कहना था कि वहां बहुत सी गाने वालियां भी जमा थीं और शाम तक यह शेर उनको दे दिया गया और दिल्ली के गली-कूचों में गूंजने लगा, और अगले दिन के अख़बारों में भी छप गया।

बहरहाल दोनों शायरों की अदावत में इस दौर का सेहरा जौक के सर रहा।

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