इस ब्रिटिश अधिकारी ने दिल्ली में मुगलों के अहमियत कर दी कम

1832 में लिखे खत में तैमूर घराने की ताबेदारी खत्म करने का जिक्र

जिस आदमी ने मुगलों के दर्जे को घटाने में सबसे अहम भूमिका निभाई, वह थॉमस मैटकाफ का बड़ा भाई सर चार्ल्स sir charles था जो उससे पहले रेजिडेंट था। “मैंने तैमूर taimur घराने की ताबेदारी ख़त्म कर दी है,” उसने 1832 में एक ख़त में लिखा। और उसके फौरन बाद उसने गवर्नर जनरल पर जोर डाला कि बादशाह को नज़र पेश करने की रिवायत को ख़त्म कर दिया जाए। जिससे लोगों को ख़्याल हो सकता है कि अंग्रेज़ बादशाह के मातहत हैं। यह तो वह मानता था कि अब तक अंग्रेज़ों का दर्जा बादशाह से कम है लेकिन उसका कहना था कि अंग्रेज़ों की ताकत और मुगलों की कमजोरी को देखते हुए, आम लोगों के सामने इस बात को न माना जाए कि बादशाह अब तक अंग्रेज़ों के मालिक हैं। उसने गवर्नर जनरल को लिखा किः “हमने शुरू से बादशाह के साथ बहुत उदार बर्ताव किया है। और मैंने उनको अतर्कसंगत या घमंडी भी नहीं पाया। लेकिन अब वह हकीकत का सामना करने से इंकार करते हैं तो बेहतर यह है कि उनकी अहमियत में कमी कर दी जाए और इस तरह रफ्ता रफ्ता वह गुमनामी में डूबते जाएंगे।”

इसका असर ये हुआ कि अगले साल उनका नाम ईस्ट इंडिया कंपनी east india company के रुपयों से भी हटा दिया गया और जब लॉर्ड ऑकलैंड दिल्ली आया तो उसने शहंशाह अकबर Akbar द्वितीय के दरबार में हाज़री देने की जहमत भी गवारा न की। 1850 तक उसके बाद आने वाले लॉर्ड डलहौजी ने किसी भी अंग्रेज़ को मुगलों से ख़िताब कुबूल करने पर प्रतिबंध लगा दिया। अंग्रेज़ों को रस्मी मुगल नामों से नवाज़े जाने को एक नाटक करार दिया गया।” यह लार्ड वैलजली के किए हुए वादे के बिल्कुल उलट था। अंग्रेज़ों की चाल थी कि वह अपने जागीरदाराना शासक के रुत्बे को घटाकर उनको सिर्फ एक मातहत अमीर बना सकें। इसी तरह रफ्ता रफ्ता मुगलों से दूसरी और रिआयतें और अधिकार भी छीन लिए गए, और आख़िर में 1852 तक ज़फ़र के पास सिवाय उनके किले और अपनी नस्ल की साख के कुछ नहीं रह गया।

लेकिन इस सबके बावजूद, जफर को जुलूस निकालने की इजाज़त थी। उनके लिए अपनी कमज़ोर होती हुकूमत जताने का और कोई ज़रिया न था, लिहाजा उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया। ज़फर के जमाने के बने लघुचित्रों में से काफी में तरह-तरह के जुलूस दिखाए गए हैं जो बहुत आकर्षक हैं। सूफी मज़ारों पर जाते हुए, गर्मी के मौसम में महरौली के महल की रवानगी, ईद मनाने के लिए ईदगाह का सफ़र या फूल वालों की सैर के मेले में प्राचीन जोग माया मंदिर या कुतुब शाह के मज़ार में शिरकत करने के लिए जाते हुए।

अगर इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो लगता है कि जफर के बेटे जवांबख्त की बरात, अपनी शान दिखाने से ज़्यादा एक गिरती हुई सल्तनत की आखिरी कोशिश थी।

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