1852 में दिल्ली की शान थे मुशायरे
सन 1852 में जब गालिब और जौक के बीच बर्चस्व का जमाना था। दिल्ली के मुशायरे प्रसिद्ध हो चुके थे। खासतौर पर अजमेरी दरवाजे वाले दिल्ली कॉलेज के प्रांगण में या मुफ्ती सदुद्दीन आजुर्दा के घर पर।
फरहतुल्लाह बेग की किताब दिल्ली की आखरी शमा इस शानदार मुशायरा की आंखों देखी नहीं बल्कि कानों सुनी दास्तान है जो ज़फ़र की देहली में आखरी बार हुआ था। यह सर डेविड ऑक्टरलोनी की विधवा बीवी मुबारक वेगम की रोशनी से जगमगाती हवेली में हुआ था जिसके सजे हुए सहन में किले के कई शाहजादे और कोई चालीस के करीब दिल्ली के दूसरे शायरों ने शिरकत की थी।
जिसमें आजुर्दा, मोमिन, आज़ाद, दाग, सहबाई, शेफ्ता, मीर, एक मशहूर पहलवान यल और जौक और गालिब भी शामिल थे। और एलेक्स हेदरली, जो सफेद मुगलों में से आखरी था और एक आलोचक के मुताबिक उर्दू का एक बेहतरीन शायर था।” वह एलिजाबेथ वैगनट्राइवर का रिश्ते का भाई लगता था।
सहन में ईंटें डालकर उसको घर के फर्श के बराबर कर दिया गया था। जिस पर कालीन बिछे हुए थे और गाव तकिये लगे थे। सारा सहन झाड़-फानूसों, हडियों, दीवारगीरों, कुमकुम, चीनी कंदीलों और बिल्लौरी शमादानों से जगमगा रहा था और रौनके-नूर बन गया था। शामियाने की छत से सैकड़ों बेले-चमेली के फूलों की लड़ियां लटक रही थीं और पूरा घर फूलों, इत्र, अगर और अम्बर की खुश्बू से महक रहा था। कालीन के ऊपर एक कतार में थोड़े-थोड़े फासले पर हुक्कों की कतार थी जिनकी चमक देखने के काबिल थी।
बैठने का इंतजाम इस तरह था कि मीरे-मुशायरा के दाएं जानिव लखनऊ के दरबार के शायर और बाई तरफ दिल्ली के उस्ताद और उनके शागिर्द थे। जितने लोग किले से आए थे उनके हाथों में बटेरें दबी थीं क्योंकि उस दौर में लोगों को बटेरबाजी और मुर्गो की लड़ाई का बहुत शौक था।”
गजल का मिस्रा-ए-तरह पहले से तय हो जाता था। ज़्यादातर शायर एक दूसरे को जानते थे और दोस्ताना प्रतिस्पर्द्धा का माहौल होता था। हुक्के, पान और मिठाई सबके सामने पेश की जाती। और फिर मीरे-मुशायरा, जो यहां मिर्ज़ा फखरू थे, बिस्मिल्लाह पढ़ते ।
बिस्मिल्लाह पढ़ते ही श्रोताओं में बिल्कुल खामोशी छा जाती। किले वाले लोग जल्दी से अपनी बटेरें थैलियों में बंद करके गाव तकिये के पीछे छुपा देते। नौकर सामने से हुक्के उठाकर उनकी जगह खासदान, पानों की गिलोरियां और उगालदान रख देते। इतनी देर में बादशाह का खास किले से नौबत बजाने बालों के साथ उनकी ग़ज़ल लेकर आ गया। उसने मिर्ज़ा फखरू से पढ़ने की इजाजत मांगी। उन्होंने सर हिलाकर रजामंदी दे दी।
उसके बाद शायरों ने अपनी ग़ज़लें सुनाना शुरू कर दीं। कभी तरन्नुम में और कभी ऐसे ही पढ़कर शेरों की बारिश होने लगी। लोग जिनको पसंद करते उनके लिए वह वाह-वाह कहते या ताली बजाते और जो जरा कमज़ोर होते उनके लिए बिल्कुल खामोश रहते। यह ग़ज़लबाजी सूर्योदय तक जारी रहती। आखिर में ग़ालिब और ज़ौक़ की बारी आती ताकि मुशायरे को चरम पर लाकर अजान की आवाज़ के साथ ख़त्म करें। लेकिन उससे पहले छावनी से बिगुल बजने की आवाज़ सुनाई दे चुकी होती। दो मील दूर ब्रिटिश छावनी में एक बहुत भिन्न दिन शुरू हो रहा होगा।
हालांकि 1852 में अंग्रेज़ और मुग़ल आपस में एक बेचैन संतुलन की जिंदगी गुज़ार रहे थे। उनकी जिंदगी अलग-अलग थी लेकिन फिर भी वह साथ-साथ और संतुलित चल रही थी। बावजूद इसके कि इस पर झगड़ा था कि वलीअहद कौन बनेगा, क्योंकि जीनत महल मिर्ज़ा फख़रू की विरासत के ख़िलाफ़ थीं, किले और रेजिडेंसी में अस्थायी सुलह कायम थी। लेकिन यह संतुलन एकदम 1852 में बिगड़ गया, और इसकी वजह थी चंद मौतें। साल के आखिर तक तीनों ब्रिटिश अफसर जिन्होंने मिर्ज़ा फख़रू के साथ विरासत के समझौते पर दस्तखत किए थे, संदिग्ध परिस्थितियों में मर गए। सबसे ज़्यादा संदिग्ध और सिसक- सिसककर मौत सर थॉमस मैटकाफ़ की हुई जो उसके डाक्टरों के मुताबिक स्पष्ट रूप से जहर देने की वजह से थी।