हाथियों की पालकी में ऐसा क्या खास था, जो दिल्ली के अमीर इसे पसंद करते थे

हाथियों की पालकी

इसे अमारी भी कहा जाता था। यह आम सवारी नहीं थी, बल्कि इसे खास तौर पर आवश्यकता पड़ने पर तैयार किया जाता था। इसका उपयोग बड़े-बड़े नवाबों या शाही खानदान के व्यक्तियों तक सीमित था प्रसिद्ध पर्यटक मनूयी ने इसका उल्लेख किया है। यह पालकी दो हाथियों के बीच लटका दी जाती थी यानी एक हाथी इसके आगे होता था और दूसरा पीछे गर्मियों में इसके चारों ओर ख़स की टट्टियाँ बाँध दी जाती थीं, जिनमें से छन-छनकर ठंडी हवा अंदर जाती थी। ‘आईन-ए-अकबरी’ में भी इस सवारी का हवाला आया है। यह सवारी हाथियों की पीठ सतह से बंधी होती थी, मगर पाँच फुट नीचे तक लटकी रहती थी। जमीन की सतह से यह काफ़ी ऊँची रहती थी और इसमें हिचकोले नहीं लगते थे। इस पालकी को भी बहुत उम्दा सजाया जाता था। इस पालकी की तुलना एक बड़े शाही हौदे से की जा सकती थी। किश्तियाँ

पानी में यात्रा करने या सैर-तफ़रीह के लिए किश्तियों का रिवाज था। अकबर एक बार आगरा से इलाहाबाद किश्ती में गया था। एक और मौके पर अकबर ने दिल्ली से आगरा तक का सफ़र जमना नदी में किश्ती से ही किया था। दिल्ली में अकबर के ज़माने में भी जमना पर किश्तियों का पुल बना रहता था। कई किश्तियाँ इतनी बड़ी और मजबूत होती थीं कि वे हाथी को भी ले जा सकती थीं जिन किश्तियों का उपयोग शाही व्यक्ति किया करते थे वे बड़ी सुंदर और सुसज्जित होती थीं जिनमें बारिश से बचने का प्रबंध भी रखा जाता था। अबुल फ़ज़्ल ने ऐसी कितियों का भी जिक्र किया है जो बड़े सुंदर ढंग से सजाई जाती थीं और उनमें कई कमरे और एक छोटा-सा बाग़ भी होता था। कई किश्तियों का अगला और पिछला हिस्सा जानवरों की शक्ल का बना दिया जाता था जैसे कि मोर, शेर या घोड़े की शक्ल का ताकि कलियों अधिक सुंदर दिखाई दें।

हुमायूँ ने एक किश्ती ईजाद की थी जिसका नाम जस-ए-रवाँ था। यह किश्ती क्या थी दरिया में तैरने वाला एक पुल था। यह पुल और किश्ती दोनों का काम देता था। इसमें कई किश्तियों को जोड़कर एक पुल का रूप दे दिया गया था। इस पुल की सतह को सख्त तख्तों से जोड़कर ऐसा पक्का बना दिया गया था कि मुसाफिर इस पर चल भी सकते थे और घुड़सवारी भी कर सकते थे। जब कभी बादशाह को दरिया में सफ़र करना होता था पुल को कई हिस्सों में बाँट कर पानी में ले जाया जाता था और फिर जोड़ दिया जाता था।

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