The secret of Delhi havelis हवेली की जिन्दगी का एक सुखद पहलू यह था कि बुजुर्ग हर सुबह घर के छोटे बच्चों के साथ बड़ा वक़्त लगाते थे। हर सुबह माएं इस बात को देखती थीं कि बच्चे मुंह-हाथ धोकर साफ-सुथरे कपड़े पहनकर तैयार हो जाते हैं। यह तैयारी कराते-कराते माएं बच्चों को कुछ जरूरी बातें भी बताती जाती थीं, मिसाल के तौर पर ‘दांत में मंजन, आंख में अंजन नित कर नित कर’ या ‘कान में तिनका नाक में उंगली मत कर मत कर।’
बच्चों के हाथ-पांवों के नाखूनों की तरफ खास ध्यान दिया जाता था कि वे बढ़े हुए न हों। जब बच्चे हर तरह से तैयार हो जाते तो उनसे कहा जाता था कि बुजुर्गों के सामने पेश हों और उन्हें सलाम और नमस्कार करें बुजुर्ग बच्चों के सिर पर हाथ फेरकर उन्हें दुआ देते- ‘इत्ता बड़ा, कड़वे नीम से भी बड़ा।’ वे बच्चों को अपने पास प्यार से बिठा लेते थे और उनसे कहा करते थे कि—अपनी आंखें बंद करो। फिर वे उन्हें पुड़ियों में लिपटी हुई मिठाई और सूखा मेवा देते थे जिसे पाकर बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहता। ये ख़ुशी के मारे चीखते-चिल्लाते और उछलते-कूदते घर के बुजुर्ग बहुत देर तक बच्चों के साथ खेलते। पीठ के बल लेटकर और बच्चों को अपने घुटनों पर बिठाकर ‘जू-जू” करना उनका एक प्रिय मनोरंजन था। जू-जू यानी की बच्चों को खेल खेल में कविताएं सुनाते। इसके बोल थे—-
जूजू के पाई के
काना कोट बिलाई के
रास्ते में इक कौड़ी पाई
कौड़ी मैंने भड़भूजे को दी
भड़भूजे ने चने दिए
चने मैंने गाय को खिलाए
गाय ने मुझे दूध दिया
दूध की मैंने खीर पकाई
खीर मैंने मोर को चटाई
मोर ने मुझे पंख दिया
पंख मैंने राजा को दिया
राजा ने मुझे घोड़ी चढ़ाया
हटो हटो राजा बेटे की
सवारी आ रही है।।
यह सुनकर बच्चे बहुत खुश होते थे। घर के दूसरे बड़े बच्चे भी बच्चों के साथ खेलते रहते। कोई किसी बच्चे को मश्क की तरह पीठ पर उठाकर खेलता। बच्चे खुद भी हाथों को ऊपर उठाकर अटकन-बटकन’ खेलते। बड़े उनका खेल देखते रहते। अटकन बटकन खेलते समय बच्चे जोर जोर से कहते थे—
अटकन पटकन दही चटाकन
अगला झूले बगला झूले
सावन मास करेला फूले
फूल फूल की बालियां
बाबा गए विदेश
लाए सात कटोरियां
एक कटोरी फूट गई
नेवले की टांग टूट गई।।
खेल-खेल में यदि किसी बात पर बच्चों की लड़ाई होने लगती तो बड़े बुजुर्ग फैसला करवा देते। बहुत छोटे बच्चों को जो चल भी नहीं सकते थे, गलनों पर चढ़ाकर चलना सिखाया जाता। अगर कोई बच्चा गिर पड़ता तो उसे चुप कराने के लिए फ़र्श को कूटता और कहता जाता-बच्चे को क्यों गिराया, बोल फिर गिराएगा, बच्चा समझता कि फर्श को मार पड़ रही है और वह रोता- रोता हंसने लगता। ये खेल काफ़ी देर तक चलते रहते और जब बड़ों के काम पर जाने का वक्त हो जाता तो एक-एक बच्चे को बारी-बारी कानों पर से ऊपर उठाकर कहते-“आ तुझे दिल्ली दिखाऊं ।”
बच्चों और बड़ों के खेल यहीं खत्म नहीं हो जाते बल्कि रात को फिर होते। बच्चे दादा-दादी और दूसरे बड़ों के बिस्तरों पर जाए बिना न सोते कहानियों की फ़रमाइश भी करते और बड़े ध्यान से सुनते। अक्सर बच्चे कहानी सुनते-सुनते सो जाते और फिर बड़े उन्हें गोद में उठाकर उनकी माँओं के पास पहुँचाते। इस तरह से बड़ों और छोटों के दरम्यान एक सुखद संबंध बना रहता और प्यार मुहब्बत की जड़ें और गहरी हो जातीं। रात को जब सो जाते, हवेली में ख़ामोशी छा जाती तो ऐसा महसूस होता कि कुनबे की मुहब्बत और प्यार से गुथी हुई जिन्दगी किसी छोटी-सी मुट्ठी में बंद हो गई हो जो सुबह होते ही फिर खुल जाएगी दिल्ली की हवेली एक ऐसी ही मुट्ठी थी।