दिल्ली...शहर जिसने तख्त-ओ-ताज बदलते देखा। जिसने सत्ता का सुनहरा दौर भी देखा और शासकों को तिल-तिल सुविधाओं के लिए तरसते भी। जिसकी गलियों में शासकों के बहुतेरे किस्से आज भी जिंदा है। शहर जो गवाह बना दिल्ली की सियासत पर अंग्रेजों की हर पल मजबूत होती पकड़ का। पटपड़गंज में मराठों की हार का। लाल किले की दीवारें कभी हिंदुस्तान की मजबूती बयां करती थी। तब दिल्ली आज की दिल्ली नहीं थी। दायरा भी सिर्फ एनसीआर तक नहीं था। दिल्ली टेरिटरी शिमला तक फैली थी। और इन टेरिटरी की अनगिनत खूबियां, समृद्ध इतिहास को संजोने का काम किया है दिल्ली अभिलेखागार विभाग ने। हाल ही में ऐतिहासिक दस्तावेजों के डिजिटल करने की घोषणा की गई। जिन दस्तावेजों को डिजिटल किया जा चुका हैं उनमें दिल्ली टेरिटरी संबंधी दस्तावेजों के अलावा दिल्ली में जनजातियों के अपराध में शामिल होने की रिपोर्ट भी है। यही नहीं ब्रितानिया सिपाहियों के शिकार के शौक पर नियम संबंधी दस्तावेज भी अब ऑनलाइन देख सकते हैं। 

दिल्ली टेरिटरी
सन 1707 में मुगल सम्राट औरंगजेब की मौत हुई। जिसके बाद मजबूत उत्तराधिकारी नहीं होने की वजह से बाहरी आक्रमणकारियों ने दिल्ली को जमकर लूटा। फारसी, अफगान और अंत में मराठों ने दिल्ली के संसाधनों का जमकर दोहन किया और इस तरह भारत की सियासत में दिल्ली की चमक कमजोर होती चली गई। मराठों की दिल्ली पर पकड़ सन 1772 में उस समय और मजबूत हुई जब उन्होंने शाह आलम को तख्त पर बिठाया। लेकिन बहुत जल्द यह पकड़ भी कमजोर हो गई। 
दरअसल वर्ष 1803 में पहली बार ब्रितानी फौजों ने महादजी सिन्धिया की सेना को हराकर दिल्ली में प्रवेश किया। अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में मराठा सेनाएं, मराठा संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लेकर आयीं एवं उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। वर्ष 1803 में ब्रितानी फौजों ने सिन्धिया की मराठा सेना को हराकर दिल्ली पर अपना कब्जा किया था। 
दिल्ली के यमुनापार इलाके में पटपड़गंज की असली पहचान, उसकी मशहूर हाउसिंग सोसाइटियों के जमावड़े और मदर डेयरी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए है कि यह स्थान कभी दिल्ली के लिए हुई निर्णायक लड़ाई का मैदान था। करीब दो सौ साल से भी पहले सितंबर महीने में हुए एक भयानक युद्ध ने न केवल दिल्ली बल्कि देश के इतिहास को हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया था। पटपड़गंज में ही 11 सितंबर 1803 को जनरल गेरार्ड लेक के अंग्रेज सैनिकों और फ्रांसिसी कमांडर लुई बॉरक्विएन के नेतृत्व में सिंधिया की सेना में दिल्ली पर वर्चस्व को लेकर एक भयंकर लड़ाई हुई थी। इसके बाद तो बादशाह सिर्फ नाम मात्र के सत्ता के केंद्र बिंदू रहे लेकिन प्रशासनिक शक्ति अंग्रेजों ने अपने हाथों में ले ली थी। यहां यह भी दीगर बात है कि दिल्ली टेरिटरी से पहले पूरा इलाका सूबा कहा जाता था जो मुगल शासन का हिस्सास था। दिल्ली टेरिटरी के प्रशासनिक व्यवस्थाओं को लेकर 2 जनवरी 1805 को लार्ड वैलेजली का यह वक्तव्य काफी महत्वपूर्ण है। वो कहते हैं कि- टेरिटरी का महत्वपूर्ण भाग दिल्ली और आसपास के क्षेत्र है जो यमुना नदी के दाहिनी तरफ स्थित हैं। इसे रखरखाव के लिए शाही परिवार को सौंपा जाना चाहिए। यह वर्तमान में भी दिल्ली रेजिडेंट के अधिकार क्षेत्र में ही आता है। इसका रेवेन्यू भी लिया जाता है एवं न्याय भी शाह आलम ही करते हैं। 
हालांकि नियम कायदे बि्रतानिया हुकूमत द्वारा लागू है। शाह आलम को कलेक्टर के आफिस में दीवान एवं अन्य अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया ताकि रेवेन्यू संबंधी जानकारी मिलती रहे। धीरे धीरे दिल्ली की सत्ता पर अंग्रेजों की हनक बढ़ती गई एवं फिर प्रशासनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप् भी। बाद में एक क्रिमिनल एवं सिविल कोर्ट भी अंग्रेजों ने बनाई। अंग्रेजों ने शासन में दखल के साथ ही दिल्ली टेरिटरी की संकल्पना साकार की एवं इसका मुखिया रेजिडेंट एवं चीफ कमिश्नर आफ दिल्ली को बनाया। इस टेरिटरी में शिमला, अंबाला, हिसार, करनाल, रोहतक, गुड़गांव और दिल्ली जिला शामिल था। दिल्ली को पहली बार विभिन्न जिलों में 1819 में ही बांटा गया।
अभिलेखागार विभाग में मौजूद दस्तावेजों की मानें तो टेरिटरी बनने के बाद नए सिरे से अधिकारों का बंटवारा किया गया। हालांकि किसी भी प्रशासनिक बदलाव के पहले मेटकॉफ ने 1807 में सबसे पहले पूरी दिल्ली का दौरा किया। सबसे पहला बदलाव जमीन के बंदोबस्त में किया गया और भूमि संबंधी निपटारे की सीमा पहले एक साल एवं फिर तीन साल की गई जो 1820 तक बढ़कर 20 साल तक हो गई। इसी दौर में महाजन की जगह बैंकरों का दबदबा भी बढ़ने लगा। नए पदों के सृजन के तहत ही 1820 में सिविल कमिश्नर के पद को डिप्टी सुपरिटेंडेंट नाम दिया गया। 1832 में रेजीडेंट पद खत्म कर दिया गया एवं इसे नार्थ वेस्ट प्रोविंश के तहत रखा गया। यानी अब प्रशासनिक कार्य ब्रितानी हुकूमत के लिए दिल्ली टेरिटरी का सुपरिटेंडेंट एवं उसके समकक्ष अधिकारी करते। जिलेदार, तहसीलदार सरीखे पोस्ट भी इसी समय आए। दिल्ली टेरिटरी 1857 तक नार्थ वेस्ट प्रोविंश के अधीन ही रहा। लेकिन प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने दंड देने के मकसद से इसे नए बने पंजाब के लेफि्टनेंट गर्वनर के अधीन कर दिया। जबकि दिल्ली जिलों का अधिकार डिपटी कमिश्नर के हाथ चला गया। इस तरह 1912 तक डिप्टी कमिश्नर ही दिल्ली का प्रशासनिक मुखिया बना रहा। 17 सितंबर 1912 को एक पब्लिक नोटिफिकेशन निकाला गया एवं इस तरह दिल्ली प्रोविंश अस्तित्व में आया। इस तरह दिल्ली अब सीधे गर्वनर जनरल काउंसिल की निगरानी में आ गया था। 
मुगलों के हाथ से प्रशासनिक व्यवस्था लेने के बाद अंग्रेजों ने बादशाह को मुखिया मानते हुए थोड़े बहुत बदलाव किए थे। हालांकि ये बदलाव प्रभावी नहीं हुए। यहां लूटपाट, डकैती जैसी घटनाएं ज्यादा होती थी। इसका काट अंग्रेजों ने कुछ इस तरह निकाला कि उन्होंने जमींदार और जागीरदार की भी मदद लेनी शुरू कर दी। एक तरफ इनकी मदद ली और दूसरी तरफ धीरे धीरे न्याय सुदृढ करना इनकी जिम्मेदारी बना दी। अंग्रेजी टेरिटरी आठ राजा, चार नवाब, तीन सरदार, एक ठाकुर एवं बेगम समरू की संपत्तियों से घिरा था। यहीं नहीं अंग्रेजों को यह भी अंदेशा था कि कई स्थानीय लोग भी डकैतों को प्रश्रय देते हैं।

ग्रामीणों पर भारी पड़ता अंग्रेजों का शौक
अभिलेखागार विभाग के दस्तावेजों की जुबानी अंग्रेजों के शिकार के शौक एवं उससे ग्रामीणों को होने वाले नुकसान एवं उनमें व्याप्त खौफ को भी समझा जा सकता है। दरअसल, सिपाही समूह में खेतों, जंगलों में शिकार खेलने पहुंच जाते थे एवं फसलों को तो नुकसान होता ही था। विरोध करने पर ग्रामीणों पर भी अत्याचार करते थे। एक घटना ऐसी ही घटित हुई थी। जिसमें एक अंग्रेज अपने नौकर के साथ शिकार के लिए गया था। दिल्ली कमिश्नर के दस्तावेजों से पता चलता है कि शिकार के दौरान ग्रामीणों ने खेती नुकसान होने पर विरोध जताया। जिसपर अंग्रेज ने दो ग्रामीणों को गोली मार दी थी। इस घटना को कमिश्नर से गंभीरता से लिया एवं आर्डर जारी किया कि शिकार पर समूह में ही जा सकेंगे वो भी परमिशन लेने के बाद। इस दौरान एक स्थानीय व्यक्ति भी साथ रहेगा। महिलाओं से बातचीत बिल्कुल नहीं करनी होगी। गांव से 500 मीटर दूरी पर ही शिकार खेल सकेंगे। हालांकि इसकी भाषा अंग्रेजी थी, लिहाजा गांवों में लोगों को पता नहीं चल सकता था। इसलिए इसका हिंदी में अनुवाद करवाया गया। गुरुग्राम के डिप्टी कमिश्नर ने हिंदी अनुवाद करा 500 कापियां इलाके में बंटवाई।
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