मुगल सियासत में कोहराम मचाने वाला साइमन फ्रेजर

ब्रितानिया हुकूमत में दिल्ली के रेजिडेंट साइमन फ्रेजर को अपनी नौकरी से रिटायर होने का एलान करने के दो दिन पहले बहादुर शाह जफर के बेटे मिर्जा फखरू की मृत्यु की खबर मिली। उनकी विरासत के नाजुक मसले पर वही प्रतिक्रिया हुई जैसे किसी बूढ़े आदमी को नींद से जगा दिया गया। हो । “बादशाह के बाकी बेटों में न कोई काबिलियत है न योग्यता, जो वह अवाम की हमदर्दी हासिल कर सकें।” उसने नए गवर्नर लॉर्ड केनिंग को लिखा । हालांकि इसका कोई सुबूत नहीं है कि उनके बारे में इस तरह लिखने से पहले उसने उनमें से किसी से भी मिलने की तकलीफ़ गवारा की हो।”

उसने यह भी लिखा कि मिर्ज़ा फखरू की मृत्यु के अगले दिन वह अफसोस करने पहली बार बादशाह से मिलने गया था। वहाँ बजाय शोक मनाने के जैसे वह समझ रहा था, उसे एक खुश्क आंखों वाले बादशाह से जिनके पास वह ख़त तैयार था जो उन्होंने गवर्नर जनरल को फिर से जवांबख्त की विरासत पर गौर करने की दर्खास्त के लिए लिखा था।

मिर्ज़ा फखरू का जनाजा उसी दिन महरौली में कुतुब शाह की सूफी दरगाह के पास दफन हो चुका था। बादशाह के ख़त में फिर यह बहस थी कि जवांबख्त विरासत का हकदार है क्योंकि एक तो वह उनका जायज़ बेटा है, दूसरे (अपने चाहने वाले बाप की नज़र में) उसमें वह तमाम खूबियां, नेक आदतें और काबिलियत है जो एक शाहज़ादे में होनी चाहिए। उसकी सारी शिक्षा मेरी निगरानी में हुई है और मेरा कोई और बेटा इसका मुकाबला नहीं कर सकता। सिर्फ वही मेरी मेहरबानी और तारीफ के काबिल है।”

लेकिन फेज़र के दिमाग में कुछ और ही था। उसने लॉर्ड केनिंग पर ज़ोर डाला कि किसी भी शाहजादे को वलीअहद नहीं बनाना चाहिए और मिर्ज़ा जवाबख्त को तो बिल्कुल ही नहीं। उसका कहना था कि मिर्ज़ा फखरू की मौत एक बहुत अहम वक़्त पर हुई है क्योंकि अभी पांच महीने पहले ही फ़रवरी 1856 में हमने अवध की दौलतमंद और खुदमुख़्तार हुकूमत पर कब्ज़ा किया है। तो यह अच्छा मौका है कि मुगल भी अपनी नस्ल के खात्मे के लिए तैयार हो जाएं जो ज़फ़र की मृत्यु के वक़्त होना चाहिए जिसमें वह समझता है कि ज़्यादा देर नहीं है । इस वक्त उनके किसी भी बेटे को वली अहद चुनना बहुत नामुनासिब होगा। शाहजादों में से कोई भी प्रभावशाली या अच्छे चरित्र का नहीं है और उनकी विरासत में आम लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं है। इस वक़्त मुग़लों के सबसे ज्यादा सम्मानजनक और हरदिलअज़ीज शहज़ादे की मौत से हमको बहुत अच्छा मौका मिला है कि हम उन सब तब्दीलियों पर अमल कर सकें जो इस खानदान और सारे मुल्क के बदलते हुए हालात के लिए मुनासिब हैं।”

इस प्रस्ताव का नए गवर्नर जनरल सी.बी. थॉर्नहिल ने भी पूरी समर्थन किया और नैनीताल से अपने गर्मियों के गवर्नमेंट हाउस में बैठे, उसने कलकत्ता में लॉर्ड केनिंग को लिखकर भेजा कि वह फ्रेज़र के प्रस्ताव पर गौर करें और मौके का फायदा उठाएं। उसने अपने ख़त में यह भी कहा कि, “बहुत अफसोस की बात होगी अगर हमने इस आसान मौके को हाथ से निकलने दिया और उन सब तब्दीलियों को अमल में नहीं लाया गया जो न सिर्फ हिंदुस्तान के हालात के लिए बहुत उचित हैं बल्कि शाहज़ादों की बेहतरी के लिए भी मुनासिब हैं। और न सिर्फ यह बल्कि इसकी व्याख्या करते हुए उसने यह भी समझाने की कोशिश की कि कैसे शाहज़ादों की बेहतरी भी इसमें ही है कि उनसे घर-बार छीन लिया जाए बल्कि और उनका वज़ीफा जो उनको गुज़ारे के लिए मिलता था वह भी बंद कर दिया जाए, “वह इसलिए कि अगर उनका शाही दर्जा और नाम मिटा दिया जाएगा तो वह अपने आलस और गुमराही की आदतें छोड़ देंगे और अपनी हास्यास्पद, शर्मनाक और फिजूल हरकतों को बंद कर देंगे जिनमें आज तक वह अपनी जिंदगी बर्बाद करते रहे हैं।

लॉर्ड केनिंग को इस मशवरे पर अमल करने में कोई झिझक नहीं हुई। वह सिर्फ पांच महीने पहले लॉर्ड डलहौजी की जगह पर हिंदुस्तान आया था। वह एक खूबसूरत, मेहनती और किसी हद तक अलग-थलग टोरी राजनीतिज्ञ थे। उसकी उम्र लगभग चालीस-बयालीस साल थी और उसने हिंदुस्तान आना सिर्फ इसलिए मंजूर किया था कि वह बार-बार कोशिश करने के बावजूद लंदन में कोई वरिष्ठ मंत्रिमंडल पद हासिल नहीं कर पाया था। हिंदुस्तान आने से पहले उसको इस मुल्क में बिल्कुल कोई दिलचस्पी न थी और जुलाई तक उसे कलकत्ता की गर्मी और घुटन में रहना पड़ा। पहले चंद महीने तो उसे ऐसा लगा जैसे वह शानदार गवर्नमेंट हाउस में कैद है जो बहुत बुरी हालत में था और जिसमें एक भी अंग्रेज़ी फ्लश तक न था । इसलिए उसे महसूस हुआ कि वह अपनी फाइलों के ढेर में दबे हुए एक बेगार के नौकर की जिंदगी जी रहा है।” लेकिन यह सब हालात उसको “मुग़ल नाटकबाजी” को बड़ी मज़बूती से रद्द करने से नहीं रोक पाए। उसने फ्रेज़र को साफ़-साफ़ लिख दिया कि “रोज़मर्रा की जिंदगी के वो सारे अधिकार जो रिआया बादशाह और उनके खानदान के साथ जोड़कर देखती थी, तख्तो ताज के सान जब्त किए जा चुके हैं। बादशाह को जो गवर्नर जनरल और फौज के कमांडर की तरफ से नज़राने और तोहफे पेश किए जाते थे वह भी ख़त्म हो चुके हैं। उनकी मुहर का सिक्का भी खारिज हो चुका है और गवर्नर जनरल की मुहर पर से भी उनकी ताबेदारी का निशान निकाल दिया गया है बल्कि दूसरे देसी राजा-महाराजाओं को भी उनको इस्तेमाल करने पर पाबंदी लगा दी गई है, क्योंकि बादशाह से वफादारी या उनकी मातहती करने से वह इंग्लैंड की असली और ठोस हुकूमत की पूरी तरह इज़्ज़त नहीं कर पाएंगे। उनको शहंशाह का ख़िताब देने का मतलब होगा कि वह पूरे मुल्क के हाकिम हैं, इसलिए वह सिर्फ दिल्ली के बादशाह के नाम से जाने जाएंगे।

हालांकि केनिंग को हिंदुस्तान का कोई तजुर्बा न था, फिर भी उसके ख़्याल में यह मुग़लों की हुकूमत ख़त्म करने का तारीखी लिहाज़ से सही मौका था। वह हुकूमत जो पिछले तीन सौ साल से उत्तरी भारत पर राज कर रही थी। सबसे पहले मुगल बाबर ने दिल्ली को तब फतेह किया था जब आठवें हेनरी की हुकूमत इंग्लैंड में शुरू हो रही थी । केनिंग का कहना था कि इंग्लैंड की हिंदुस्तान पर हुकूमत कभी इतनी मज़बूत और खुशहाल नहीं थी जैसी उस वक्त थी । “पिछले चंद साल में न सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत ख़ूब बढ़ गई है बल्कि अच्छी तरह फैल भी गई है और इसकी सत्ता पहले से कहीं ज़्यादा जम गई है। इसलिए हिंदुस्तान में सिर्फ एक नाम के ख़िताब वाले बादशाह का होना बिल्कुल बेमानी है। इसलिए उसने फ्रेज़र की राय से सहमत होते हुए फ़ैसला किया कि आइंदा कोई भी मुग़ल बादशाह वलीअहद नहीं जाना जाएगा। उसका यह भी कहना था कि हिंदुस्तान के उत्तरी सूबे उथल-पुथल की स्थिति में नहीं हैं जैसे 1849 और 1850 में थे। इससे यह जाहिर होता है कि शाही खानदान की मौजूदगी अब दिल्ली में लोगों के लिए कोई खास अहमियत नहीं रखती। मुसलमानों के लिए भी नहीं।

केनिंग तो खैर हिंदुस्तान में नया नया आया था और उससे ज़्यादा जानकारी की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन बाद के वाकेआत से पता चलेगा कि उसकी यह तहरीर बिल्कुल उस स्थिति के खिलाफ थी जो उस वक्त उत्तरी भारत में थी । अंग्रेज़ों की रिआया से इतनी दूरी थी और वह उनकी राय को इस तरह नज़रअंदाज़ करते रहे कि वह बिल्कुल उन ख़तरों को न देख पाए जो उनके गिर्द मंडला रहे थे। और न ही अपनी स्थिति का सही तरह अंदाज़ा लगा पाए। उनके घमंड और हुकूमत के गुरूर ने उनकी देश की सही हालत समझने और उसके बारे में कोई मालूमात हासिल करने की ख्वाहिश को ख़त्म कर दिया था।

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