विलियम डेलरिंपल अपनी किताब द लास्ट मुगल में लिखते हैं कि ब्रितानिया हुकूमत के दौरान दिल्लीवालों के व्यवहार में अंग्रेजों ने एक बदलाव का अनुभव किया। एक दशक पहले जब अदम्य भारतप्रेमी फैनी पार्कर हिंदुस्तान आई तो उनको लगा था कि लोगों का बर्ताव बहुत बदल गया था और लोग बेहद मजहबी होते जा रहे थे। जवान लड़कियां भी समझती थीं कि नाच की पार्टियों में या थिएटर या घुड़दौड़ में जाना बहुत गलत है। बहुत से अफसर भी इस बात से इत्तफाक करते थे और उन्होंने “नई रौशनी” के नाम से अपना एक ग्रुप बना लिया था।”

1840 और 1850 के दशकों तक हिंदुस्तान बहुत से धार्मिक अंग्रेज़ों से भर गया था जो न सिर्फ हिंदुस्तान पर हुकूमत करना चाहते थे बल्कि उसको निजात दिलाना और नैतिक रूप से बेहतर बनाना भी चाहते थे। कलकत्ता में जेनिंग्स का साथी एडमंड्स अपनी राय का खूब जोर-शोर से प्रचार कर रहा था कि कंपनी को अपनी ताकत का लोगों का मजहब बदलवाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। उसने एक खत लिखकर बहुत लोगों को भिजवायाः

“अब वक्त आ गया है कि इस बात पर संजीदगी से गौर किया जाए कि सब लोग एक मजहब कुबूल करेंगे या नहीं। अब रेलवे, माप के इंजन और तारघर दुनिया के सारे मुल्कों को एक दूसरे से जोड़ रहे हैं। सारी दुनिया एक होती जा रही है और हिंदुत्व हर जगह पिछड़ रहा है। ईश्वर के नियुक्त किए हुए एक दिन इसका पतन होना जरूरी है।”

और सिर्फ मिशनरी ही नहीं थे जो हिंदुस्तानियों को ईसाइयत की राह पर लाने के ख्वाब देख रहे थे। दिल्ली के उत्तर पश्चिमी सूबे में पेशावर के कमिशनर हरबर्ट एडवर्ड्स का पक्का ख्याल था कि ब्रिटेन को यह पूरी सल्तनत उनके प्रोटैस्टैंट होने की वजह से मिली है। उसका कहना था कि “सल्तनत देने वाला गॉड ही है। और उसने यह अंग्रेज़ों को इसलिए अता की है कि उन्होंने ईसाई मजहब की वास्तविक आत्मा को सुरक्षित रखा है। उसके ख्याल में अंग्रेज ईसाइयत को फैलाने की जितनी ज़्यादा कोशिश करेंगे, उतनी ही उनको अपनी सल्तनत फैलाने में आसानी होगी। और इसी सिलसिले में फतेहपुर के डिस्ट्रिक्ट जज रॉबर्ट टकर ने पत्थर का एक ऊंचा स्तंभ खड़ा किया था जिसपर ईसाई मजहब के दस आदेश फारसी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में खुदे थे। और वह खुद हफ्ते में दो-तीन बार हिंदुस्तानी में लिखी बाइबिल पढ़कर उन लोगों को सुनाता जो वहां जमा होते थे।”

यह इंजीली जोश ब्रिटिश फौज में भी फैल गया था। ड्रैगन गाईस के एक सिपाही का कहना था कि यह मजहबी जुनून इतना बढ़ गया कि अंग्रेज़ अफसर हर सुबह धार्मिक सभाओं में भाग लेने लगे। कहा जाने लगा कि जो सिपाही जंग में हिस्सा लेगा और उसके साथ-साथ दुआएं भी पढ़ेगा, उसको कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता।” कंपनी की अपनी फौज का भी यही हाल था।” कर्नल स्टीवन व्हेलर जैसे अफसर रोज अपने सिपाहियों को और बाजारों, सड़कों और गांवों के लोगों को बाइबिल पढ़कर सुनाते और उम्मीद करते कि प्रभु उनके जरिए उन सब लोगों को सीधे रास्ते पर चलाने की कृपा करेगा और उनको हमेशा के नर्कवास से बचाएगा।

कंपनी के डायरेक्टरों के भी ऐसे ही ख्यालात थे। जिसमें सबसे आगे-आगे चार्ल्स ग्रांट था जिसका कहना था कि “दुनिया में कहीं ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जैसे यह हिंदू हैं जो अपने वहमों और रस्मो-रिवाज की जंजीरों में कैद हैं।” ग्रांट ने प्रस्ताव दिया कि मिशनरी कार्रवाइयों को और बढ़ाना चाहिए ताकि वह लोग जो बिल्कुल भ्रष्ट, अंधे, अय्याश और बदनसीब हैं उनको धर्म परिवर्तन के लिए तैयार किया जाए।” कुदरत अंग्रेजों को इस अधर्म के गढ़े में इसी महान काम को अंजाम देने के लिए लाई है:

हमको यह नहीं सोचना चाहिए कि यह एशिया के इलाके मालिक हमको सिर्फ सालाना मुनाफा कमाने के लिए दिए गए हैं। बल्कि इसलिए कि हम यहां के वासियों को जो मुद्दतों से अंधेरे, जिहालत और गुनाहों में धंसे हुए हैं, असली सचाई और रौशनी की बरकत से नवाज सकें।

इस सब मिशनरियों के असली मददगार कलकत्ता के बड़े पादरी रेजिनाल्ड हीवर थे। उन्होंने विभिन्न मिशनरी सोसाइटियों की मदद करने के सिलसिले में बहुत काम किया था और कंपनी के अफसरों से भी बहुत ज़ोरदार सिफारिश की थी कि उन सबको हिंदुस्तान भर में फैलकर प्रचार करने की इजाजत दें। 1813 तक कंपनी के चार्टर में इस पर पूर्ण प्रतिबंध था। और इसको सिर्फ इसलिए बदला गया कि लंदन में ‘कमेटी ऑफ दे प्रोटेस्टेंट सोसाइटी’ ने पार्लियामेंट से दर्खास्त की कि इस चार्टर को बदला जाए ताकि ईसाई मजहब को ‘तेजी से पूर्वी क्षेत्रों में फैलाया जा सके।’

हीवर ही ने इस प्रक्रिया को चालू करने का काम किया। उसने बहुत भजन लिखे जो उन नए आक्रामक रूप से आत्मविश्वासपूर्ण मिशनरियों के लिए से लड़ाई का नारा बन गए। उनके यह जोशीले भजन आज तक गाए जाते हैं। इसमें पवित्र युद्ध का जिक्र है, जहां ईसाई सिपाही लोगों की निजात के लिए लड़ाई करते हैं और उनकी निजात के लिए बुराई के खिलाफ अच्छाई फैलाने के लिए खतरे, मेहनत और तकलीफ उठाते हैं।

एक भजन में लिखा है “खुदा का बेटा खुद लड़ाई को जाता है और उसके खून का लाल झंडा हवा में लहराता है।” हीबर के भजनों से यह भी पता चलता है कि मिशनरी लोगों की उन लोगों के बारे में क्या राय थी जिनका वह धर्मपरिवर्तन करना चाहते थे:

ग्रीनलैंड के बर्फीले पहाड़ों से और हिंदुस्तान के रेतीले तट से हमें बुलाया जाता है कि हम उनके देश को गुनाह के फंदे से निकालें। नर्म और खुशगवार हवाएं लंका के द्वीप से गुजरती हैं। हर चीज वहां की सौम्य है सिवाय लोगों के जो दुष्ट हैं। प्रभु ने उन पर कृपा करके उन पर तोहफे बिखेरे हैं लेकिन मूर्तिपूजक अपने अंधेपन में लकड़ी और पत्थर के सामने ही झुकता है। हीबर की राय भी हिंदुस्तान के दुष्ट बुतपरस्तों के बारे में वही थी जो फादर जेनिंग्स की थी जिसने दिल्ली पहुंचने के फौरन बाद लिखा था: ” हमको कहीं एक जोरदार हमला जरूर करना होगा। और मैं उम्मीद करता हूं कि वह यहीं से शुरू होगा।

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