रवादारी या उदारता दिल्ली की सभ्यता का एक विशेष लक्षण रहा है। इसका संबंध जन साधारण और विशिष्टजन दोनों से था। शासकों ने भी अपनी रैयत के किसी भी वर्ग से अपनी बात ताकत के जोर से नहीं मनवाई। प्राचीन दिल्ली के बादशाहों की और मुगल शासन की भाषा फारसी थी मगर किसी बादशाह ने जबरदस्ती उसे गैर-मुस्लिमों पर थोपने की कोशिश नहीं की। जहां तक रोजमर्रा की बातचीत का संबंध था मुसलमान शासकों ने यही कोशिश की कि मुसलमान स्थानीय बोली ही शेख निजामुद्दीन औलिया हिन्दी पसंद करते थे और क़व्वाल भी उनके सामने अक्सर हिन्दी के दोहे और शेर सुनाते थे।

एक दिन किसी ने हजरत गेसू दराज’ से पूछा लिया, पीर-ओ-मुशीद, सूफी साहबान फारसी शेरों, ग़ज़लों और गीतों के मुकाबिले में हिन्दवी (हिन्दी) को क्यों पसंद करते थे? उन्होंने जवाब दिया, “फारसी शेरों और गजलों की अपनी खास खूबियां हैं मगर हिन्दी बड़ी नरम और दिल को छूने वाली है। इसका इजहार सीधा और मुअस्सर है। इसके गीतों को सुनकर आजिजी और इन्किसारी (विनम्रता) के जज्बे बेदार होते हैं। इसमें मुलायमत और नजाकत है और इसमें जज्बात का इजहार बड़ी उम्दगी से होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह भी हमारे वतन की जबान है।” रवादारी और तहज़ीब की इससे बड़ी मिसाल और क्या होगी ?

मुगल बादशाहों में हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के करीब लाने और हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों के मिश्रण से एक नई मिली-जुली संस्कृति के निर्माण में शहंशाह अकबर ने जो कोशिश की, उसका ज़िक्र हिन्दुस्तान के इतिहास में हमेशा किया जाएगा। अकबर धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का बहुत बड़ा समर्थक और नेता था। वह अपने साम्राज्य की प्रजा को बिना किसी धार्मिक भेदभाव या पक्षपात के एक मिली-जुली भारतीय संस्कृति में गुंथा देखना चाहता था और इसके लिए उसने हर संभव प्रयत्न किया।

उसने कई ऐसी रस्मों और रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया जिनसे हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचती थी। मिसाल के तौर पर उसने गोवध को निषिद्ध कर दिया। इसी तरह उसने कुछ विशेष परिस्थितियों में, विशेष दिनों में मांस भक्षण पर प्रतिबंध लगा दिया। 1564 ई. में उसने जज़िया हटा दिया। अगर कोई हिन्दू स्त्री किसी मुसलमान के साथ भाग जाती और उसे जबरदस्ती मुसलमान बना लिया जाता तो पकड़े जाने पर ऐसी हिन्दू स्त्री को वापस उसके रिश्तेदारों के हवाले कर दिया जाता और उसे दुबारा हिन्दू बना दिया जाता। यही क़ानून उन हालात में मुसलमान औरतों पर भी लागू था।

अकबर की ही प्रेरणा पर सिंहासन बत्तीसी, अथर्ववेद, रामायण और राजतरंगिणी का अनुवाद भी फ़ारसी में किया गया। इस प्रकार मुगल शासन काल में दो बुनियादें मज़बूत हो गई जिन पर एक मिली-जुली संस्कृति और सभ्यता की इमारत खड़ी हुई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि आपसी संदेह मिट गए और हिन्दू तथा मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर भाइयों की तरह इस देश के कोने-कोने में रहने लगे। जन्म की, शादी-ब्याह की और दूसरी रस्में ज़्यादा मेलजोल से एक-सी हो गई और महज़ रस्मों के आधार पर यह पहचान करना मुश्किल हो गया कि यह मुस्लिम घराना है या हिन्दू। एक समय वह आ गया कि यदि दाढ़ी या टोपी पहचान की निशान न होती तो हिन्दुओं और मुसलमानों में पहचान भी मुश्किल हो जाती, क्योंकि लिबास भी दिल्ली में कमोबेश एक-सा ही हो गया था।

मुसलमानों का अंगरखा और बाद में अचकन और उन जैसी दस्तार (पगड़ी) हिन्दू भी पहनने लगे थे। कई स्थानों पर शेख संप्रदाय में शादियां मुल्ला और ब्राह्मण दोनों कराते थे। कच्छ की खाड़ी में बसने वाले मेमन फिरके में जब बच्चा एक महीने का हो जाता था तो उसका नाम रखने के लिए किसी सारस्वत ब्राह्मण को बुलाया जाता था। इसी तरह सिंघ के सुन्नी मेमनों में और आग्रा खां के अनुयायियों में कुछ अंधविश्वास वही थे जो हिन्दुओं में भी थे। राजस्थान में सूरतगढ़ के पास मोधा मीरी का मंदिर था जिसमें पूजा मुस्लिम पुजारी करते थे और दान-दक्षिणा लेते थे। अलवर और भरतपुर में मेव और मीणा फिरकों के लोगों के नाम हिन्दुओं पर थे जिनके आगे सिर्फ ‘खान’ जुड़ा रहता था, जैसे गोवर्धन खां, गिरधर खां आदि। ये हिन्दुओं के त्योहार भी मनाते थे।

इस सांस्कृतिक मेल-जोल का प्रभाव बड़ा दूरगामी पड़ा दिल्ली, पंजाब और दूसरे उत्तरी भागों में हिन्दुओं ने इस्लामी संस्कृति के बहुत-से पहलू अपने रहन-सहन में अपना लिए। लिबास पर तो उसका स्पष्ट प्रभाव पड़ा ही मगर नामों पर विशेष रूप से हुआ। हिन्दुओं के नाम भी मुसलमानों पर होने लगे। सिकन्दर लाल, इकबाल चंद, श्याम परवेज आदि कुछ ऐसे नाम थे जो हिन्दुओं में आमतौर पर मिलते थे। इन्दौर के आसपास ऐसे मुसलमान पटेल बसते थे जिनके हिन्दू नाम थे वे हिन्दुओं का सा लिबास ही पहनते थे और उनमें से बहुत-से भवानी की पूजा करते थे। पूर्निया में हर मुसलमान घर में एक पर ‘खुदाई घर’ होता था जिसमें अल्लाह की इबादत के साथ-साथ काली की पूजा भी होती थी। उनके यहां शादी की कुछ रस्में भगवती देवी के मंदिर में भी अदा की जाती थीं और हिन्दू देवताओं को फल-फूल का प्रसाद चढ़ाया जाता था।

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