राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का दिल्ली से दिली जुड़ाव रहा। एक बार गांधी जी को दंगल में बुलाया गया। आयोेजकों के आमंत्रण को गांधीजी ने स्वीकार कर लिया।गांधीजी दंगल देखने पहुंच गए। गांधीजी की वजह से बहुत भीड़ इकट्ठा हो गई थी। वह नामी पहलवानों की टक्कर थी दोनों पहलवान अखाड़े में उतरने से पहले गांधीजी का आशीर्वाद लेने आए और उन्होंने उनके पांव छुए। गांधीजी ने एक लंबे-चौड़े पहलवान की पीठ पर हाथ फेरकर कहा, “क्यों भाई, हम से कुश्ती लड़ोगे?” पहलवान हाथ जोड़कर बोला, “नहीं बापू, हम आपसे कुश्ती नहीं लड़ सकते। आपकी बहादुरी और ताकत के क्या कहने। आपने तो इतनी बड़ी बर्तानवी सल्तनत को हरा दिया। हम किस गिनती में हैं जो आपसे लड़ें ?
आजादी के बाद दिल्ली में अखाड़ों में जान आती जा रही है मगर पढ़ा-लिखा अच्छे घराने का नौजवान लड़का तो अखाड़ों से ऐसा कटा है कि अब शायद कभी नहीं जुड़ेगा। बहरहाल एक परंपरा जो दिल्ली में अखाड़े की क़ायम हो गई थी, अब भी जारी है। आज भी दिल्ली में अखाड़ों की तादाद कई सौ के करीब होगी। यमुना का किनारा आज भी कई अखाड़ों का केन्द्र है। गुरु हनुमान का अखाड़ा बड़ा मशहूर है। रुस्तम-ए-हिन्द सतपाल उनके ही शिष्य हैं। सतपाल के अलावा अशोक कुमार, मंगलदास गुप्त, राजेन्द्र सिंह, स्वदेश कुमार, सतबीर सिंह, जगमंदर सिंह, जगदीश और सुखचैन सिंह भी अच्छे पहलवानों में गिने जाते हैं। दिल्ली के दूसरे अखाड़ों में बदरी खलीफा के अखाड़े से विजय कुमार, आनंद राय और जगदीश मिश्र उल्लेखनीय हैं। इसमें आनंद राय और विजय कुमार ने काफी नाम कमाया।
गुरु चिरंजी का परशुराम अखाड़ा भी पुराना है। हरियाणा के मास्टर चंदगीराम ने भी, जो ‘हिन्दी केसरी’ का खिताब जीत चुके हैं, दिल्ली में अपना एक अलग अखाड़ा कायम किया है। दिल्ली क्लॉथ मिल्स और बिड़ला मिल्स भी कुछ अखाड़ों को मदद देते हैं। और पहलवानों को प्रोत्साहन देते हैं। दिल्ली प्रशासन भी कुश्तियों और दंगलों में दिलचस्पी लेता है। लेकिन अब वह पुरानी बात कहां कि दिल्ली के हर कूचे और मुहल्ले में ही अखाड़ा कायम है, घर-घर नौजवानों को कुश्ती और कसरत का शौक है, तड़के ही लंगर- लंगोटे उठाकर गलियों में लड़के निकल पड़े हैं, मुंह अंधेरे ही मेहनत और कसरत की हूं-हां चारों तरफ सुनाई दे रही है और पट्टे और शागिर्द कसरत के बाद कुएं से डोल खींच-खींचकर एक-दूसरे को नहला रहे हैं।