नेहरू (jawaharlal nehru) इतने व्यस्त रहते थे कि उनके पास पार्टी की गतिविधियों की तरफ ध्यान देने की फुर्सत नहीं थी, गांधीवादियों की सुध लेना तो बहुत दूर की बात थी। इसलिए गांधीवादी उनसे नाराज रहने लगे थे कि देश के किसी भी मामले में उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया जाता। आखिर, 1959 में, महात्मा गांधी (mahatma gandhi) के सबसे परम शिष्य विनोबा भावे (vinoba bhave) ने नेहरू और पन्त को वर्धा के पास स्थित अपने पवनार आश्रम में आमंत्रित किया। उन्होंने उन दोनों से कहा कि वे गांधी के रास्ते से भटक गए थे।

नेहरू विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन के प्रशंसक थे, जिसके अन्तर्गत जमींदार अपनी भूमि का कुछ हिस्सा भूमिहीनों में बाँटने के लिए दान करते थे। जब शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में खेतिहर मजदूरों को जमींदारों की जमीन दान की थी तो भी नेहरू ने उनकी सराहना की थी, हालाँकि शेख ने जमींदारों को कोई मुआवजा नहीं दिया था। उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश के बाद कि सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए जमीन के अधिग्रहण के लिए ‘न्यायपूर्ण मुआवजा दिया जाना चाहिए, नेहरू ने संविधान में पहला संशोधन किया था। इस संशोधन के अनुसार, किसी जमीन के अधिग्रहण के लिए सरकार द्वारा निर्धारित उचित मुआवजा दिया जाना जरूरी था।

नेहरू मुआवजा देने के खिलाफ नहीं थे, लेकिन वे सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए सरकार के अधिग्रहण के अधिकार को मजबूती से स्थापित करना चाहते थे। पिछले छह दशकों में राज्यों और केन्द्र ने इस अधिकार का खुलकर दुरुपयोग किया है। आश्रम की बातचीत धीरे-धीरे तीखी बहस में बदल गई थी। नेहरू को लगा मानो उन्हें

कटघरे में खड़ा किया जा रहा हो। हालाँकि विनोबा ने व्यापक दायरे में बात करते हुए सिर्फ इतना कहा था कि किसी भी सरकार या व्यक्ति के लिए गांधी के मापदंडों पर खरा उतरना बहुत मुश्किल था, लेकिन आश्रम की एक वृद्ध महिला खुलकर नेहरू और उनकी सरकार को कोसने लगी थी। उसने सरकार पर महात्मा गांधी के सिद्धान्तों छोड़ने का आरोप लगाया तो नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उन्होंने पलटकर वार करते हुए कहा कि उन्हें भूदान आन्दोलन और आश्रम के कामकाज में हो रही गड़बड़ियों की पूरी जानकारी थी। उन्होंने कहा कि वे जान-बूझकर खामोश रहे थे, “लेकिन अगर आप आर्थिक विकास पर बहस करना चाहती हैं तो मुझे भी गांधीजी के नाम पर हो रही धांधलियों पर उँगली उठाने की अनुमति दीजिए।” पन्त ने स्थिति को सँभालते हुए उस महिला को ऊलजलूल आरोप लगाने के लिए फटकार लगाई और बातचीत ‘कटु भावनाओं’ के साथ खत्म हो गई।

The Prime Minister Shri Jawaharlal Nehru’s Acharya Vinoba Bhave and others at the Kurukshetra Refugees Camp which they visited in April. 1948.
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