जहांगीर ने भी संगीत को प्रश्रय दिया। उसके दरबार में उस्ताद मुहम्मद नाई, बाक़िया, शौकी तंबूरा नवाज, जहांगीर दाद, चतुर खां, हाफ़िज अब्दुल्ला और रहीम दाद खां जैसे निपुण कलाकार मौजूद थे। तुजुक-ए-जहांगीरी में इनमें से अधिकांश का उल्लेख मिलता है। जहांगीर कव्वाली का भी दिलदादा था। उसकी मजलिस-ए-समा में सूफियों को हाल आ जाता था। एक बार दिल्ली के कव्वाल उसके हुजूर में कव्वाली पेश कर रहे थे, जब उन्होंने अमीर खुसरो का यह शेर पढ़ा-

हर कौम रास्त रहे दीने-ओ-किब्लागाहे

मन किब्ला रास्त करदम बर सिम्त कज कुलाहे

तो अली अहमद मोहरकुन को हाल आ गया। उन्होंने टोपी जरा तिरछी कर ली और तड़पकर जमीन पर गिर पड़े। जहांगीर ने लपककर उनका सर उठाया तो वे अल्लाह को प्यारे हो चुके थे।शाहजहां के काल में संगीत बहुत फूला फला। उसकी सुरुचि स्थापत्य में प्रकट हुई। वह एक संयमी और नेक बादशाह भी था। उसके बारे में कहा जाता है कि उसने ‘नमाज कभी कजा नहीं की। इस नेकी ओर संयम के बावजूद वह संगीत-कला को प्रश्रय देता था। सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि शाहजहां की अपनी आवाज बड़ी सुरीली थी और बादशाह ने खुद कई हिन्दी राग ईजाद किए थे। कावायद-उल-सल्तनत- ए-शहजहानी में लिखा है कि शाहजहां को ईरानी, कश्मीरी और हिन्दुस्तानी राग-रागनियों से खास लगाव था और वह हरमसरा में हर रोज दो-तीन घंटे तक संगीत का आनंद उठाता था।

रात को महफ़िलों में गाने-बजाने पर दासियों नियुक्त थीं और शाही दरबार में संगीत कला के उस्ताद अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। नायक बख़्शू की मृत्यु को काफ़ी समय हो चुका था लेकिन शाहजहां उसका बड़ा प्रशंसक था। इस ख़याल से कि कहीं समय बीतने के साथ लोग नायक बख़्शू को भूल न जाएं उसने अपने संगीत विशेषज्ञों को हुक्म दिया कि वे बख़्शू के गाए हुए ध्रुपद राग एकत्र करें। उन्होंने बड़ी मेहनत के बाद हज़ार धुपद-ए-नायक बख़्तू के नाम से एक पुस्तक संपादित करके बादशाह की खिदमत में पेश की। उस पुस्तक की एक प्रति अभी तक बॉडलिन लाइब्रेरी ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में सुरक्षित है।

शाहजहां के संगीत-प्रेम का अनुमान इससे भली प्रकार लगाया जा सकता कि लाल किले के नौबतखाने में गवैये मौजूद रहते थे जो दिन के पहरों को रागों और रागनियों में बिताया करते थे।शाहजहां के शासन काल में शादी-ब्याह के उत्सवों में संगीत के कार्यक्रम विशेष रूप से आयोजित किए जाते थे। जब शहजादा दारा शुकोह का निकाह नादिरा बेगम से हुआ तो उस अवसर पर मुतरियान-ए-उप्तकिश्वर’ मौजूद थे और उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन किया। शहजादा शुज्ञा की शादी के मौक़े पर भी मशहूर गवैयों ने संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। जब औरंगजेब का निकाह दिलरस बानो से हुआ तो संगीतकारों ने ऐसा रंगारंग कार्यक्रम पेश किया कि अब्दुल हमीद लाहौरी के कथनानुसार आसमान वालों ने कई रोज तक जमीन से सिवाय नग़मात के और कोई आवाज़ नहीं सुनी।

सैफ खां ने राग दर्पण में शाहजहां के काल में जिन 32 संगीतकारों का उल्लेख किया है उनमें सूफ़ी बहाउद्दीन का नाम सबसे ऊपर है। आप ऊंचे दर्जे के संगीतकार होने के साथ एक मुकम्मल दरवेश भी थे। तराना और ख्याल बहुत अच्छा गाते थे और रबाब और बीन बजाने में आपका जवाब नहीं था। कलावंत भी शाहजहां का दरबारी गवैया था और अपनी कला में निपुण था वह भी अपना ज़्यादातर समय अल्लाह वालों के साथ गुजारता था। शेख शेर मुहम्मद भी उस दौर के नामवर संगीतज्ञ और दरवेश हुए हैं। उन्होंने नग़में में बड़ी तरक्की की। वे ख्याल भी खूब गाते थे और उनके गाने में बड़ा दर्द होता था।

जगन्नाथ कलावंत शाहजहां का दरबारी गवैया था और उसे शाहजहां ने कविराज की उपाधि दे रखी थी। सैफ खां ने लिखा है कि तानसेन के बाद उसके स्तर का कोई दूसरा गवैया नहीं हुआ। वह शाहजहां के नाम पर राग बनाया करता था और धुपद गाने में उसका कोई सानी नहीं था। दूसरे हिन्दू संगीतकारों में जनार्दन बीकानेरी, ताराचंद कलावंत, सूरदास पगवावजी, धर्मदास कलावंत, तुलसीदास कलावंत, सालमचंद डागर और सुन्दरघन उल्लेखनीय हैं। इन सबके बारे में सैफ खाँ लिखता है कि वे बादशाह की कृपा के पात्र थे। इसी तरह बादशाहनामा में मुहम्मद वारिस ने एक और हिन्दू संगीतकार वालीराम का जिक्र किया है जिसे शाहजहाँ ने काबुल में दो हजार रुपए दिए थे।

शाहजहां के दरबार में लाल ख़ां कलावंत का दर्जा बहुत बड़ा था। लाल खां अभी कम उम्र में ही था कि वह तानसेन की खिदमत में हाजिर हुआ। तानसेन ने बड़े ध्यान से उसे संगीत की शिक्षा देना शुरू किया मगर अभी वह सीख ही रहा था कि तानसेन का निधन हो गया। उनके बेटे विलास खाँ ने उसे अपना शिष्य बना लिया और अपनी बेटी की शादी उससे कर दी। सैफ खाँ ने उसे अपने वक्त का सबसे बड़ा ध्रुपद गायक बताया है। लाल खाँ कलावंत तानसेन की जगह पर खड़ा होकर अपना राग पेश किया करता था। शाहजहाँ उसे हर समारोह के अवसर पर इनाम- इकराम से सम्मानित करता था। एक बार बादशाह ने उसका राग सुनकर उसे एक हाथी बतौर इनाम दिया और एक दूसरे मौके पर उसे ‘गुणसमुद्र’ की उपाधि प्रदान की। लाल खाँ कलावंत के बेटे खुशहाल ख़ाँ और यसराम ख़ाँ भी शाही दरबार के गवैये थे। पिता के देहांत के बाद उसका पद खुशहाल खाँ को मिला और उसे भी तानसेन की जगह पर खड़े होकर गाना गाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

संगीतकारों और साजिंदों में सैयद खो-बिन-सुबहान खाँ, मीर इमाद, अल हिदाद, रहीम दाद खाँ, सैयद तैयव बुड्डा, फीरोज डाटी, जाहिर डाढी, मोहम्मद रस बीन, अबुल वफा, बहुत ख़ाँ गुजराती और बायजीद खाँ कलावंत की गिनती भी कला के विशेषज्ञों में होती थी। एक और गवैया गन खाँ कलावंत भी मशहूर दरबारी गवैया था। शहजादा शुजा को उसका राग बहुत पसंद था और उसने शाहजहाँ से उसे माँग लिया था। गन खाँ की बाकी उम्र शहजादे की सेवा में ही बंगाल में गुजरी और वह वहीं फ़ौत हुआ। बायजीदरब्बानी, मुहम्मद बाक़ी और शेख सादुल्लाह भी बड़े अच्छे गवैयों में गिने जाते थे। लेकिन बाद में उनके गले अफ़ीम खाने की वजह से खराब हो गए थे।

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