हिन्दुतान ने अपने संस्कृत नाटकों की शानदार विरासत को मुसलमानों के काल में खो दिया। 1719-19 ई. में एक हिन्दी कवि ‘नवाज’ ने फ़र्रुखसियर के दौर में कालिदास के जगप्रसिद्ध नाटक ‘शाकुंतलम्’ का अनुवाद करके संस्कृत नाटक को बहाल करने की कोशिश की लेकिन उस अनुवाद को आधुनिक संदर्भ में किसी भी प्रकार से नाटक नहीं कहा जा सकता था। न उसमें चरित्र-चित्रण मौलिक था, न कार्य-व्यापार और अभिनय भी नाम मात्र का या नहीं के बराबर।

लोक मंच पर धार्मिक विषयों की प्राचीन लोक कथाएं प्रस्तुत की जाती थीं। पुराने विश्वासों पर आधारित अर्ध- ऐतिहासिक या कपोलकल्पित कथाओं को भी नाटक का रूप दे दिया जाता था उनकी प्रस्तुति भी दमदार होती है। ये तमाशे आम तौर पर त्योहारों के दौरान उनके एक-दो दिन पहले पेश किए जाते थे। उस दौर में ऐसे तमाशों के लिए जगह-जगह मंडलियां बनी होती थी जो तमाशा करती हुई देश भर का दौरा करती थीं। ज्यादातर मंडलियां मथुरा और वृंदावन की थीं जो बार-बार दिल्ली आकर अपने तमाशे दिखाती थीं। दिल्ली के आस-पास भी दो-तीन मंडलियां थीं।

मौलाना गनीमत ने अपनी मसनवी नैरगि-ए-इश्क में उन लोगों का बड़ा शिक्षाप्रद चित्र प्रस्तुत किया यह मनसवी उन्होंने शहंशाह औरंगज़ेब के समय में लिखी थी। उन्होंने इन तमाशा करने वालों को ‘भगतबाज़’ कहा था। भगतबाज़ हिंदू भी होते थे और मुसलमान भी और उनका एक-दूसरे से गहरा संबंध था। उत्तर भारत में दिल्ली के भगतबाज़ सबसे अधिक प्रसिद्ध थे और अपनी कला में दक्ष माने जाते थे। ‘मलफूज-ए-ज़र्राकी’ के अनुसार जब भगतबाज महाभारत की कथा प्रस्तुत करते थे तो आमतौर पर भगवान कृष्ण के गुणों और महान कार्यों को दिखाया जाता था। तमाशे वालों में से ही कोई आदमी कृष्ण बन जाता था और दूसरे कम उम्र लड़के जिनके चेहरों पर अभी दाढ़ी-मूंछ भी नहीं आई थी कृष्ण कन्हैया की गोपियां बन जाते थे। तमाशे के बीच में बार-बार सूरदास के दोहे गाए जाते थे।

हरेक गुरु और भगत के लिए उस्ताद का अपना अलग अखाड़ा होता था। अखाड़ों में आपस में दोस्ताना मुकाबिला होता था। अखाड़े का गुरु ही भगत खेल का लेखक, निर्देशक और संगीतकार होता था। मंच पर गणेश पूजा का पावन दीप जलाकर (जिसमें अभिनेता गणेश खुद भी मंच पर नृत्य करता था ) असल तमाशा शुरू कर दिया जाता था। नौटंकी में भी यही परिपाटी अपनाई जाती थी लेकिन उसमें उसकी इतनी अहमियत नहीं होती थी। भगत में गणेश पूजा के बाद ही लड़कियों के नृत्य के साथ खेल शुरू कर दिया जाता था। उसके बाद असल कहानी पेश की जाती थी।

1857 की आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने भी जनता में भगत की लोकप्रियता को महसूस किया और उन्होंने फैसला किया कि वे भी भगत करने वालों से अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लाभ उठाएंगे। जनता में उस समय अंग्रेजी शासन के खिलाफ असंतोष उभर रहा था। जनता का ध्यान क्रांतिकारी विचारों से हटाने के लिए भगत के उस्तादों को मजबूर किया गया कि वे अश्लील और कामोत्तेजक और मनोरंजक भगत लिखें और खेलें। अब भगत का धार्मिक स्वरूप सिर्फ गणेश पूजा तक सीमित होकर रह गया। उसे देखने वाले केवल घटिया दर्जे के लोग रह गए। धीरे-धीरे भगत की लोकप्रियता कम होती गई और बाद में किन्हीं कारणों से उसका ऐसा पतन हुआ कि दो-तीन दशकों में ही लुप्त हो गया। भगत की जगह नौटंकी ने ले ली।

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