ब्रिटिश रेजिडेंट सर थॉमस मैटकाफ sir thomas metcalfe शुरू में गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि की हैसियत से मुगल दरबार में भेजा गया था। लेकिन जैसे-जैसे अंग्रेज़ों की ताकत बढ़ती गई और मुगलों की घटती गई, उन्होंने दिल्ली delhi पर हुकूमत करने का और ज़्यादा जिम्मा ले लिया और अपने को दिल्ली का गवर्नर कहने लगे।
यह हुकूमत का छिन जाना जफर bahadur shah zafar के लिए बिल्कुल नई बात थी। जब 1803 में शुरू में अंग्रेज़ हिंदुस्तान bharat आए थे तो उन्होंने मराठियों की, जो उस वक्त ज्यादातर मुल्क पर काबिज़ थे, संयुक्त फौज को हराकर अपने आपको शाह आलम के रक्षक और समर्थक के रूप में पेश किया था। इस वक्त लॉर्ड वैल्जली ने, जो गवर्नर जनरल था, लिखा था, “हालांकि बादशाह की हुकूमत और सल्तनत बिल्कुल ख़त्म हो चुकी है, फिर भी हिंदुस्तान में हर शहर और हर दर्जे के लोग उनके नाम की बादशाहत मानते हैं और हर क्षेत्र में शाह आलम के नाम का सिक्का ढाला जाता है।
सच तो यह था जो उन्होंने लिखा नहीं कि इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी का रुपया भी शामिल था, और कंपनी की मुहर पर भी मुग़लों के कानूनी ताबेदार होने का सबूत था, क्योंकि इस पर “फिदवी शाह आलम” खुदा हुआ था। वैल्ज़ली ने यह भी लिखा कि वह नहीं चाहता था कि इंग्लैंड में कोई उस पर शक करे कि वह ईस्ट इंडिया कंपनी को मामूली तौर से या वास्तव में मुग़लों के तख्त पर बिठाना चाहता है। लार्ड लेक को निर्देश दिया गया कि वह वफादारी दिखाए और इज़्ज़त, सम्मान और सेवा का पूरा प्रदर्शन और बर्ताव बूढ़े बादशाह के सामने करे। और नए रेज़िडेंट से भी कहा गया कि वह सब सही तौर-तरीके इस्तेमाल करे जिसके हिंदुस्तान के बादशाह हकदार हैं।”