शादी-ब्याह के मौके पर दिल्ली में भी गारी गीतों का रिवाज था, जिन्हें लोकगीतों से अलग नहीं किया जा सकता। इन गालियों में अश्लील शब्द भी होते थे लेेकिन कोई इनका बुरा नहीं मानता था और मजे की बात यह थी कि उन गालियों को औरतें ही इस्तेमाल करती थीं। सच तो यह है कि उनसे दिल दुखाना उद्देश्य नहीं था और उन्हें केवल मजाक के तौर पर खुशी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। गालियां रिश्तेदार औरतें ही देती थीं। बरात में आने पर कहा जाता था-
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चंदा सा दूल्हा लाया बरात फुलवारी सी बन गई दिन रात
घोड़े दूल्हा आया सवार दूल्हा का अब्बा गधा सवार
दूल्हा की अम्मी बड़ी सयानी हाथी पे चढ़के आई मस्तानी
इन गाली गीताें में समधी, समधिन की छेड़-छाड़ और द्वि-अर्थक बातों में बदतमीजी और अशिष्टता होती थी लेकिन खुशी के मौके पर उनका कोई बुरा नहीं मानता था। शाही महलों से लेकर गरीब की झोंपड़ी तक में ये गाए जाते थे।
नादिरात-ए-शाही में शाह आलम द्वितीय के लिए बहुत सी गाली मिलती हैं—-
काम भई उब रस मसी आई समधन फूल
भोला-भाला दिला मिला दीनो समधन फूल
समधन मिल्क जमानी कहवे रात पुकार
समधी बस कर अब मुझे फूलन गेंद न मार
लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता ये सीठने सिर्फ एक विनोदी स्वभाव और आम हंसी-मजाक को अभिव्यक्ति करने लगे, जैसे कि-
समधीजी के कोट नहीं है, इन्हें बढ़िया सा जोड़ा पहनाओ री
समधीजी के कमीज नहीं है, उन्हें बढ़िया सी चोली पहनाओ री
समधीजी के पैंट नहीं है, उन्हें बढ़िया सा लहंगा पहनाओ री
समधीजी के जूता नहीं है, उन्हें बढ़िया बिछुवा पहनाओ री
समधीजी के घड़ी नहीं है, उन्हें हरी-हरी चुड़ियां पहनाओ री ।
अब ये गाली गीतों का रिवाज लगभग बंद हो या है। कम से कम दिल्ली में तो यह रिवाज खत्म ही होता जा रहा है।
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