दिल्ली के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर

दिल्ली में हनुमान जी के कई मंदिर हैं। मंदिराेंं में हनुमान जी की दिव्य अनुभूति कराती मूर्तियां हैं लेकिन नई दिल्ली में कनाट प्लेस के पास बाबा सड़क सिंह मार्ग पर जो हनुमान मंदिर है वहां हर मंगलवार को हमेशा से बड़ी भीड़ होती आई है और एक बड़ा मेला-सा लग जाता है। हालाँकि मंदिर उतना पुराना नहीं है, लेकिन उसमें हनुमान की मूर्ति हजारों साल पुरानी है। कहा जाता है कि पांडवों ने भी इसी मूर्ति की पूजा की थी और यह मूर्ति अपने आप धरती से निकली थी। जब मुग़ल शहंशाह अकबर का अजमेर के राजाओं से मेल-जोल बढ़ा और राजा बिहारीमल की पुत्री का अकबर से विवाह हुआ तो राजा बिहारीमल के पुत्र राजा भगवान दास अकबर के नौ रत्नों में शामिल किए गए। राजा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह को सूबेदारी मिली और दिल्ली के कई हिस्से जागीर में मिले। राजा मानसिंह ने अपने नाम पर राजाबाजार में हनुमान की मूर्ति रखकर मंदिर बनवाया।

अकबर राजा मानसिंह को बेटा कहकर बुलाता था और उसने उसे मिर्जा राजा की उपाधि भी दी थी। इस हनुमान मंदिर की एक विशेषता यह है कि इसके कलश की चोटी पर दूज का चाँद यानी ‘निशान-ए-हिलाल’ है जो मुसलमानों का मजहबी निशान समझा जाता है। दरअसल यह निशान भगवान शिव के मस्तक पर भी है और हनुमान जी को शिव का पुत्र माना जाता है। कहा जाता है कि अकबर को सपने में हनुमान जी दिखाई दिए जिन्होंने अकबर को आगाह किया कि कुछ लोग उनकी मूर्ति तोड़ना चाहते हैं और अगर ऐसा हुआ तो बड़ा अन्याय होगा। इस पर अकबर ने राजा मानसिंह से सलाह की, जिसके फलस्वरूप मंदिर बनवाया गया और उसमें हनुमान जी की मूर्ति प्रतिष्ठित की गई। मंदिर की चोटी पर निशान-ए-हिलाल बनाया गया, जिसका उद्देश्य दोनों धर्मों की प्रतिष्ठा बनाए रखना है।

दुर्गा पूजा

उन दिनों दुर्गा पूजा भी होती थी। आज भी होती है। रामायण में भी दुर्गा पूजा का कई स्थानों पर उल्लेख हुआ है। दुर्गा शक्ति की देवी है और वह पाप का नाश करती है। हिन्दू भी दुर्गा को मानते हैं और बंगालियों का तो दुर्गा पूजा सबसे बड़ा त्योहार है। जब से कलकत्ता भारत की राजधानी बनी और उसके बाद दिल्ली को राजधानी बनाया गया तो दिल्ली में बंगालियों की आबादी काफ़ी हो गई थी। दिल्ली में दुर्गापूजा का त्योहार मनाना 1912 से शुरू हुआ। लेकिन उससे पहले काली मंदिर 1840 में जमना के निगम बोधघाट के पास काग़ज़ी गली में निर्मित हो चुका था। 1857 के संघर्ष में मंदिर टूट गया था लेकिन काली की मूर्ति बिना किसी देखभाल के जमना के किनारे पड़ी रही। जब दिल्ली में शान्ति स्थापित हो गई तो नीलमणि ब्रह्मचारी ने दिल्ली आकर कुछ बंगालियों और दिल्लीवालों की मदद से नई सड़क के पास रोशनपुरा में मंदिर बनवाकर मूर्ति उसमें रखवा दी थी। 1879 में काली की मूर्ति को तीस हजारी के नए मंदिर में ले जाया गया।

विजय दशमी के दिन दुर्गा की सुंदर मूर्ति फतेहपुरी के पास एक धर्मशाला से बड़ी धूमधाम से निकलती थी और मूर्ति को जमना में विसर्जित कर दिया जाता था। अब तो दिल्ली के सभी भागों में दुर्गापूजा होती है। नई दिल्ली की काली बाड़ी की दुर्गापूजा में बड़ा आकर्षण है। भजन-कीर्तन और आरती होती रहती है। आज दिल्ली के सैकड़ों भागों में दुर्गा की मूर्ति बड़े-बड़े जुलूसों के रूप में जमना लाई जाती है और लोगों का उत्साह और श्रद्धाभाव दर्शनीय होता है।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here