बगावत शुरू होने के बाद सिपाहियों ने उठाया यह बडा कदम
“अगर नक्शा देखा जाए, तो लगता है कि 1857 की क्रांति दिल्ली से शुरू होकर घेरे के रूप में चारों तरफ फैलती गई। शहंशाह बहादुरशाह जफर द्वितीय और उनकी फिर से बहाल हुई मुगल सल्तनत, अब पूरे उत्तरी भारत के विभिन्न बेहाल, बेजोड़ और अड़ियल लोगों की–जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे- उम्मीदों और इच्छाओं का केंद्र बन गई और उसमें विभिन्न गिरोहों और उद्देश्यों के मिशन भी शामिल हो गए और सारे बागी सिपाही अपने मालिकों के खिलाफ उठ खड़े हुए और दिल्ली रवाना होने लगे।
अंग्रेजों को ताज्जुब था कि सारे बागी सिपाहियों ने खूनखराबे का रास्ता नहीं अपनाया। बल्कि ” बहुत से सिपाहियों ने अपने अफसरों का अपमान किए बिना… खामोशी से लेकिन दृढ़तापूर्वक ऐलान कर दिया कि उन्होंने अपने आपको कंपनी की नौकरी से आज़ाद कर लिया है और अब दिल्ली के बादशाह की रिआया बनने और उनकी सेवा करने जा रहे हैं। बहुत से सिपाहियों ने तो अपने अफसरों को सलाम किया और बहुत इज़्ज़त और तमीज़ से अपने मुंह बग़ावत के केंद्र यानी दिल्ली की तरफ फेर लिए, ताकि उन लोगों में शामिल हो सकें और उनकी तादाद बढ़ा सकें, जो हिंदुस्तान की राजधानी में हमसे लड़ने वाले थे। “”
अब मुग़लों और अंग्रेज़ों दोनों का भविष्य इस पर निर्भर था कि दिल्ली में क्या होने वाला है। फील्ड फोर्स के ग्रैंड ट्रैक रोड पर दिल्ली की तरफ चलने के कुछ ही समय बात फ्रेड रॉबर्ट्स ने अपनी मां को लिखा: “सारे हिंदुस्तान की किस्मत का दारोमदार हमारी कामयाबी पर है। अगर हम हार गए, ख़ुदा जाने क्या होगा।” तो
अंग्रेज़ों की ख़ुशकिस्मती से उनके सारे अफसर एसन, विल्सन और हैविट जैसे नाकारा और सुस्त नहीं थे। लाहौर में, पंजाब के चीफ कमिश्नर ऊर्जावान सर जॉन लॉरेंस ने चार बागी हिंदुस्तानी दस्तों के हथियार 13 मई की सुबह को ही जब्त कर लिए, जबकि परेड के मैदान में बारह भरी तोपें लिए अंग्रेज़ अफसर उनके सामने खड़े थे। एक रात पहले अफसरों का बॉल उसी तरह हुआ था, जैसे होना था ताकि किसी को कोई शक ना हो। एक अफसर ने लिखा है “शाम बड़ी अच्छी गुजरी। आंसू छिपाने के लिए मुस्कुराने का नाटक करते रहे। लेकिन आधी महिलाएं नहीं आई और जो आई भी वह भी मुश्किल ही से अपनी घबराहट को छिपा सकीं।