बगावत की शुरुआत के पहले दिन चार बजे शाम को चार्ल्स टॉड के दो असिस्टेंट टेलीग्राफ ऑपरेटर वेंडिश और पिल्किंगटन दफ्तर बंद करके फरार हो गए, पहले फ्लैगस्टाफ टावर और फिर मेरठ।

लेकिन जाने से पहले उन्होंने मोर्स कोड में दो संदेश पंजाब और फ्रंटियर में कमांडर-इन-चीफ और रेजिमेंट के नाम भेज दिए। यह अभी तक लाहौर के पंजाब आर्काइव्ज में असली दस्तावेज़ की शक्ल में सुरक्षित हैं।

पहला पैगाम, जो दोनों में ज्यादा तफ्सीली है, दोपहर को भेजा गया था और उसमें लिखा था:

“पूरी छावनी का घेर लिया गया है। मेरठ से थर्ड लाइट कैवेलरी के बागी, तादाद नामालूम, खबर के मुताबिक कोई डेढ़ सौ सिपाहियों ने, कश्तियों के पुल पर कब्जा कर लिया है, और उन्होंने ख़बर भेजने के जरिए को तोड़ डाला है, उनके खिलाफ 51वीं एनआई को भेजा गया, लेकिन उन्होंने कुछ करने से इंकार कर दिया, बहुत से अफसरों को मार डाला गया या ज़ख्मी कर दिया गया। सारा शहर एक उन्माद के स्थिति में है। उनके खिलाफ दस्ते भेजे गए हैं, लेकिन अभी तक कुछ पता नहीं है कि क्या हो रहा है।”

दूसरा तार उन लोगों के फरार होने से कुछ पहले भेजा गया था, “हमें दफ्तर छोड़ना पड़ेगा। मेरठ वाले सिपाही सारे बंगले जला रहे हैं, वह यहां सुबह आए थे।

मि. टॉड शायद मर चुके हैं। वह सुबह बाहर गए थे, मगर अब तक नहीं लौटे हैं।” यह तार की नई ईजाद की सफलता एक ड्रामाई प्रमाण था, जिसको गालिब नए जमाने का चमत्कार कहते हैं। यह संदेश फौरन अम्बाला पहुंच गया और कुछ ही घंटों में वहां से आगे लाहौर, पेशावर और शिमला भी भेज दिया गया।

हिमालय की गर्मियों के मौसम की राजधानी शिमला में आराम करते हुए. चीफ कमांडर जनरल जॉर्ज एंसन को यह संदेश मंगलवार की सुबह मिला, जब वह नाश्ता कर रहा था। एक तेज़ घुड़सवार रात भर पहाड़ों की बल खाती सड़कों पर तेज़ी से घोड़ा दौड़ाता हुआ, सुबह-सुबह अम्बाला से शिमला पहुंचा। एसन ने वॉटरलू की लड़ाई के बाद, जो चालीस साल पहले हुई थी, कोई भी फौजी सरगर्मी नहीं देखी थी। इसलिए उसे इस मामले की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं हो पाया। इसी तरह उसने कुछ दिन पहले चर्बी लगी गोलियों के महत्व को नज़रअंदाज़ किया था। अगले दिन शाम को उसका एक सलाहकार कीथ यंग अपनी डायरी में लिखता है: “ऐसा लगता है कि उन्होंने सारा मामला मज़ाक़ में टाल दिया और कहा देखा जाएगा।” दो दिन बाद तक कमांडर-इन-चीफ निष्क्रिय शिमला में बैठा रहा, तो उसके बहुत से वफादार साथियों को भी चिंता होने लगी। यंग की बीवी ने लिखा है:

“सब कुसूर चीफ का है। उनको कभी फ़ौजी ट्रेनिंग नहीं मिली। इसलिए वह मौके की नज़ाकत नहीं समझ पाते। जब मंगल की सुबह उन्हें यह बुरी ख़बरें मिली थीं, तो उनको फौरन रवाना हो जाना चाहिए था। क्वाटरमास्टर जनरल कर्नल बेचर ने बहुत कहा कि उन्हें वक्त नहीं बर्बाद करना चाहिए लेकिन उन्होंने कहा, नहीं मैं डाक का इंतज़ार करूंगा। आखिर बिजली से तार भेजने का क्या फायदा अगर उस पर भेजी हुई ख़बर पर फौरन अमल नहीं किया जाए। “”

जब एसन अम्बाला पहुंचा, तब तक चार दिन गुज़र गए थे। वहां मालूम हुआ कि संचालन संबंधी कुछ मुश्किलों की वजह से फ़ौज आगे नहीं जा सकती, क्योंकि खर्च कम करने के लिए कंपनी के सामान ढोने वाले ऊंटों को बेच दिया गया था। अब कोई ठेकेदार नहीं मिल सकता था, जो कंपनी की इन तीन रेजिमेंटों के सामान का जिम्मा ले सके, जो अम्बाले में जमा थीं।

इसके अलावा और मुश्किलें भी थीं। किसी रेजिमेंट के पास उन बीस राउंड गोलियों के अलावा जो वह अपनी थैली में रखते थे और कोई हथियार नहीं था, क्योंकि शिमला से उन्हें जो अस्लहा मिलना था, वह अभी तक आया था और एक रेजिमेंट का सामान कहीं पहाड़ों और अम्बाला के बीच खो गया था। और अब उन सिपाहियों के पास दो सफेद कोट और एक पतलून के सिवाय और कुछ पहनने को भी नहीं था।’ और भी ज़्यादा परेशानी की बात यह थी कि ऐसन ने अपने स्टाफ के आगाह करने के बावजूद, अम्बाला के बागी सिपाहियों के हथियार जब्त करने का उनका मशवरा नहीं माना, जिसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने भी फौरन बगावत का ऐलान कर दिया और अपनी पलटनों के साथ ग्रैंड ट्रैक रोड पर हथियारों समेत रवाना हो गए। लेफ्टिनेंट फ्रेड रॉबर्ट्स ने लिखा है:

“बाप रे बाप! किसी को यकीन नहीं आएगा कि अंग्रेज़ इतनी बेवकूफी से काम ले सकते हैं, जितना उस नाजुक मौके पर बार-बार देखा गया… कितनी बड़ी बेवकूफी है कि एक पूरी फौज इस तरह तितर-बितर हो गई… कोई सोच भी नहीं सकता कि हालात कितने बेकाबू हैं। हमारे कमांडर-इन-चीफ बिल्कुल निकम्मे और सुस्त हैं। “”

लेकिन यह सिर्फ एसन का कुसूर नहीं था। फौजी प्रशासन की इसी तरह की मुश्किलें मेरठ में यूरोपियन रेजिमेंट में भी पेश आ रही थीं, जिसकी वजह से वह मेरठ के बागी सिपाहियों का दिल्ली तक पीछा नहीं कर पाए थे। मेरठ की बगावत शुरू होने के दो दिन बाद, यानी 12 मई को जनरल आर्चडेल जो वहां के दो कमांडरों में से एक था, अपनी बीवी से इकरार करता है। कि: “हमारे पास कोई ऐसा जरिया नहीं था जो हम उनके पीछे जा सकते, ना ही कोई मवेशी थे, सिर्फ 15 हाथी और कुछ बैल।”” और विल्सन का साथी जनरल हैविट तो और भी नाकारा था, जैसा कि ख़ुद विल्सन ने कहाः “वह एक खौफनाक बूढ़ा बेवकूफ आदमी है और उसको सिर्फ अपनी बूढ़ी

हड्डियों को नुकसान से बचाने के सिवा और कोई फिक्र नहीं है।”” दस दिन तक यह फ़ौज अम्बाला में फंसी रही। हिमालय की तलहटी के इस शहर में बड़ी सख्त गर्मी थी, और उसी दौरान हैजा फैलना शुरू हो गया, एक ऐसी मुसीबत की बीमारी जिससे तक़रीबन उतनी ही जानों का नुकसान हुआ, जितना बागियों की गोलियों से हुआ था। 75वीं गॉर्डन हाइलैंडर्स के लेफ्टिनेंट रिचर्ड बार्टर ने लिखा है: “बड़ी भयानक बदबू थी। तीन-चार लोगों की लाशें, जो उस कमबख्त बीमारी से मरे थे, उनकी रजाइयों में लिपटी पड़ी थीं। गज़ब की गर्मी पड़ रही थी और हवा का एक झोंका तक नहीं था, जो पत्तों को जरा सा हिला देता। हम वहां दम तोड़ चुके और दम तोड़ते लोगों के बीच बैठे उनकी कराहें सुन रहे थे, जो पेड़ों के नीचे ख़ामोश हवाओं में गूंज रही थीं। 24 मई को बगावत शुरू होने के पूरे तेरह दिन बाद एंसन और उसकी फील्ड फोर्स आखिरकार मुग़ल राजधानी दिल्ली की तरफ रवाना हुई, लेकिन 27 की रात को कमांडर-इन-चीफ़ करनाल पहुंचकर खुद ही हैजे से मर गया। उधर चूंकि अंग्रेज़ों की तरफ से कोई ख़ास विरोध नहीं हुआ था, इसलिए सिपाहियों की रेजिमेंटों ने नौशेरा, अम्बाला और पंजाब में फिलोर और फीरोजपुर में भी, और नसीराबाद, राजपूताना, हांसी, हिसार, मुरादाबाद, आगरा, अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी और एटा तक में सबने बगावत का ऐलान कर दिया।

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