1857 की क्रांति : अधिकतर मुगल शाहजादों ने अपने आपको बगावत से जोड़ लिया था क्योंकि इसमें उनका कोई नुकसान नहीं था, बल्कि उल्टा फायदे की संभावना थी। लेकिन बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल और उनके चहेते बेटे जवांबख्त ने इसके बिल्कुल उलट राह पकड़ी और वह भी इन्हीं कारणों से।
जीनत महल अपने पति के फैसले से बहुत नाख़ुश थीं और समझती थीं कि यह जवाबख़्त की बेहतरी के बिल्कुल खिलाफ था। उनकी शादी में यह पहला मौका था कि ज़फ़र ने खुलेआम किसी अहम मसले पर उनकी ख़्वाहिश के ख़िलाफ़ काम किया। हकीम अहसनुल्लाह अपने संस्मरणों में लिखते हैं कि मलिका को ‘शिकायत थी कि बादशाह उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते हैं। लेकिन बादशाह ने बस इतना कह दिया कि जो ख़ुदा चाहेगा वही होगा।
जीनत महल ने सोचा था कि अंग्रेज वापस आएंगे और सिपाहियों को निकाल बाहर करेंगे। इसलिए अगर अब उनसे वफादारी दिखाई, तो शायद वह उनके प्यारे बेटे को जफर की जगह दे दें। बहरहाल जो भी वजह हो, लेकिन उन्होंने ही जफर से जिद की थी कि वह जल्दी आगरा में उत्तर-पश्चिम के सूबों के गवर्नर को बगावत की रात एक तेज ऊंट पर संदेशवाहक भेजें।
बाद में उन्होंने पूरी निगरानी की कि जवांबख्त बागियों से दूर रहें और किसी तरह उनकी हिंसा में शामिल नहीं हों। जब मिर्जा मुगल को कमांडर-इन-चीफ बनाया गया, तो जवाबख्त को बस नाम के लिए वजीर का खिताब दिया गया। लेकिन उनको बागियों से बिल्कुल दूर रखा गया और उन्होंने शहर के प्रशासन में कोई दखल नहीं दिया।