हिंदी भवन और कवि सम्मेलन के शुरू होने की कहानी
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi: दिल्ली में हिंदी साहित्य के फूल खिलने की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। दिल्ली शहर दर शहर में निर्मला जैन ने इसपर विस्तार से लिखा है। वो लिखती हैं कि शहर में जिन साहित्यकारों ने अपना ठिकाना बनाया उनमें वरिष्ठों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के अतिरिक्त दिनकर, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन, कुछ बाद में भवानी प्रसाद मिश्र जैसे नाम थे। नई साहित्यिक चेतना के वाहक मुख्यतः पत्रकारिता के माध्यम से आए जिनमें सबसे बड़ा नाम अज्ञेय का था।
उनके अलावा अपेक्षाकृत युवा पीढ़ी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, साहित्य अकादमी में भारत भूषण अग्रवाल और रंगमंच की दुनिया में सुरेश अवस्थी और नेमिचन्द्र जैन। बाद में गिरिजाकुमार माथुर भी शामिल हो गए थे और नए कहानीकारों की तिगड़ी-मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव भी। नामवर सिंह का आना 1965 के बाद हुआ।
दिल्ली में हिन्दी सेवी संस्थाओं की अलग दुनिया थी। इनमें मुख्य था हिन्दी साहित्य सम्मेलन। बीज रूप में, रीगल सिनेमा के सामने थिएटर कम्यूनिकेशन बिल्डिंग के नीचे के तल से सम्मेलन की गतिविधियाँ चलती थीं। इनका प्रमुख लक्ष्य था लोकप्रिय रचनाओं के माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार।
उपर्युक्त दोनों समुदायों के कार्यक्षेत्र एक-दूसरे से बिलकुल अलग थे। साहित्य-सम्मेलन के साथ जिन लोगों का जुड़ाव था, उनमें कवियों में रामानन्द दोषी, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, देवराज दिनेश और नाटककारों में चिरंजीत जैसे लोग थे। इसके संचालन की बागडोर गोपाल प्रसाद व्यास के हाथ में थी, जो मुख्य रूप से हास्य- व्यंग्य की रचनाओं के कारण बड़े लोकप्रिय थे।
व्यास जी जीजा-साली और पति-पत्नी जैसे सम्बन्धों पर लिखी कविताओं और अपने हँसोड़ स्वभाव के कारण जनप्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने हिन्दी-सेवा के नाम पर राजनीतिक हलकों में भी काफी दबदबा कायम कर लिया था। शहर के व्यापारी वर्ग में भी उनका बहुत मान था। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी गणतन्त्र दिवस के आसपास लालकिले के दीवान-ए-आम में, सालाना कवि-सम्मेलन का आयोजन।
वे इसके लिए भारत भर से जनप्रिय कवियों को आमन्त्रित करते थे। उस शाम दिल्ली की आम जनता समुद्री ज्वार-भाटे की तरह उस दिशा में उमड़ती थी। गम्भीर बौद्धिक तेवरवाले रचनाकारों के बीच यह प्रयास उपेक्षा या उपहास का विषय बना रहा। हज़ारों की उस भीड़ के बीच हिन्दी की जोत जगाए रखने के लिए इस तरह के आयोजनों की भूमिका और ऐतिहासिक महत्त्व पर पुनर्विचार होना चाहिए क्योंकि इसके श्रोताओं की संख्या ही भारी नहीं होती थी, वे देर रात गए बड़े मनोयोग से जनता के कवियों को सुनते थे।
एकाध बार कुछ ‘नए’ कवियों को मंच सौंपा गया तो वहाँ भारतभूषण अग्रवाल के ‘तुक्तकों’ के अलावा कुछ नहीं जमा। वस्तुतः भारत जी ने बहुत सोच-समझकर इस श्रोता-रिझाऊ शैली को हलकी हास्य कविता या गालबजाऊ देशभक्तिपरक कविताओं की लोकप्रियता पर जवाबी हमले के लिए इजाद किया था। वरना जो जनता नरेन्द्र शर्मा को हूट करके काका हाथरसी की माँग का कोरस गाती थी, उसके बीच जमने का और कोई ज़रिया नहीं हो सकता था।
व्यास जी का दूसरा लक्ष्य था शहर में हिन्दी-भवन का निर्माण। जब वे इस विषय की चर्चा करते थे तो उनके भीतर छिपा ब्रजभाषा काव्य का रसग्राही प्रकांड विद्वान् उभरकर आता था। आरम्भ में उन्हें विशेष सहयोग नहीं मिला। हिन्दी के नाम का खाने और सेवा का गीत गानेवालों से तो बिलकुल नहीं। उन्होंने लगभग ‘एकला चलो रे’ के संकल्प से अन्ततः अपना लक्ष्य सिद्ध किया।
हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरुष बनारसीदास चतुर्वेदी उनसे पहले इस दिशा में प्रयास कर चुके थे। सहयोग देने के नाम पर उनका जो अनुभव हुआ था, उसकी जानकारी हिन्दी-प्रेम के पाखंड को समझने के लिए ज़रूरी है। चतुर्वेदी जी ने दुखी होकर जो पत्र 16/6/67 को अपने अभिन्न मित्र और हितैषी सीताराम सेक्सरिया को लिखा, उसके अंश ध्यान देने लायक हैं- ‘… हिन्दी जगत में दूसरों की साधना से निर्मित चीज को येन-केन-प्रकारेण हड़पनेवाले तैयार रहते हैं। तालाब खुदने से पहले मगर आ कूदते हैं। इन मगरमच्छों से भवन की रक्षा करनी होगी।’
भवन का प्रारूप व्यापक है, उद्देश्य अत्युत्तम। पर बिल्ली के गले घंटी कौन बाँधेगा ?
बकौल निर्मला जैन, मुझे शान्तिनिकेतन के हिन्दी भवन तथा दिल्ली के हिन्दी भवन दोनों का पर्याप्त अनुभव है। निजी तौर पर मैं आपको बतला दूँ कि हिन्दी भवन (दिल्ली) के लिए न तो एक पैसा सेठ गोविन्ददास ने दिया, न मैथिलीशरण जी ने, न दिनकर जी ने, न बच्चन जी ने, न जैनेन्द्र जी ने। सभी ने स्पष्ट मना कर दिया… और दिल्लगी की बात यह है कि आगे चलकर हिन्दी भवन ने इन्हीं लोगों का सम्मान किया।””
यह सही है कि उस ज़माने में तथाकथित ‘अभिनन्दनीय’ लोगों के बीच ऐसी होड़ाहोड़ी मची कि कहीं कोई बचा न रह जाए। बाद में उस पंक्ति में इतने स्वनामधन्य छुट्नैये शामिल हो गए कि सच्चे अर्थ में रचनाकारों के लिए वैसे अनुष्ठान में शामिल होना शर्मनाक मालूम होने लगा। वैसे यह बीमारी शैक्षिक जगत में भी प्रवेश कर गई और अभी तक फल-फूल रही है। साहित्यिक जगत में इस प्रवृत्ति ने जो रूप ग्रहण किया है, वह एक साथ दिलचस्प और दयनीय है। तरह-तरह के ‘आयोजन-प्रायोजन’, तरह-तरह के ‘निमित्त’ सब मित्रों, भक्तों, शिष्यों के खाते में। बेखबरी की मासूम मुद्रा बनाए हुए या फिर औरों की अबोधता पर भरोसा किए हुए। ऐसी नौटंकी पर कौन है भला जो कुर्बान न हो जाए? पर यह बहुत बाद की बात है।
साठ से अस्सी तक के दो दशक अनेक दृष्टियों से बड़े गहमागहमी के दशक थे। राजनीतिक और शैक्षिक-साहित्यिक, सभी दृष्टियों से। मोह पालने से अन्ततः मोहभंग होने तक की दूरव्यापी यात्रा के दशक। देश पर चीनी, पाकिस्तानी आक्रमण हो चुके थे। परिणाम जो रहे हों, पर नेहरू के आत्मविश्वास को डिगाने के लिए अकेला चीनी आक्रमण ही काफ़ी था, जिसने उनकी जान ले ली। पंचवर्षीय योजनाओं की विफलता भी सामने आ चुकी थी। गुट-निरपेक्षता की विदेश-नीति के भी वैसे नतीजे सामने नहीं आ रहे थे, जैसी आशा थी। कुल मिलाकर अनिश्चय, अस्थिरता, दिग्भ्रम, जिसके कारण साहित्य में अस्तित्ववादी मुहावरों और एक हद तक सोच को भी फलने-फूलने के लिए अनुकूल परिस्थिति निर्मित हो गई थी। यह सिलसिला लगभग एक दशक तक चला। कुल मिलाकर इसे महाबलियों के पतन या कम से कम श्रीहीन हो जाने का दशक कहा जा सकता है।
शैक्षिक जगत में, परिस्थितियों ने सत्ता की बागडोर डॉ. नगेन्द्र के हाथ से ले ली थी। वे जब तक रहे, हिन्दी की विश्वविद्यालीय दुनिया के बेताज बादशाह की तरह अखिल भारतीय स्तर पर मन्त्रालयों से विश्वविद्यालयों तक हिन्दी से सम्बन्धित तमाम गतिविधियों का संचालन करते रहे। वे बड़े योजना विलासी आचार्य थे। उन्होंने अपनी अध्यक्षता के दौरान विश्वविद्यालय में ‘हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय’ की स्थापना की। ‘अनुसन्धान परिषद्’ आरम्भ की। ‘भारतीय हिन्दी परिषद्’ के अधिवेशन आयोजित किए। शहर में बसे सभी वरिष्ठ साहित्यकारों से सम्पर्क-सम्बन्ध कायम रखे, जिनका लाभ समय-समय पर उनके विद्यार्थियों को होता था। अपने निजी सम्बन्धों को दरकिनार कर भी वे अक्सर विभाग के हित में आयोजन करते थे।
अज्ञेय से विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में नए साहित्य के प्रवेश के प्रसंग को लेकर उनकी बराबर लाग-डाँट चलती रहती थी। फिर भी वे उन्हें तब तक आमन्त्रित करते रहे, जब तक एक संगोष्ठी में अज्ञेय की अकारण कड़वाहट भरी टिप्पणी से वे मर्माहत नहीं हुए। बात आगे नहीं बढ़ती, पर इस घटना पर धर्मयुग में एक रिपोर्टनुमा लेख छापकर धर्मवीर भारती ने दोनों के बीच की दूरी को और पुख्ता कर दिया। इस घटना के कुछ समय बाद मैंने लेडी श्रीराम कॉलेज में दक्षिण परिसर के एक सेमिनार का आयोजन किया। दोनों आए। संयोग से दोपहर-भोजन के लिए आमने-सामने बैठना हो गया। मैं प्रबन्ध में व्यस्त थी। तभी प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी लपके हुए आकर बोले, “अरे, आप यहाँ लगी हैं, उधर महाआलोचक और महाकवि के बीच महामौन खिंचा है, बड़ी साँसत है, चलकर उबारिए।” मैं लपकी, प्रयास किया, सफलता आंशिक और अस्थायी थी, पर संकट टल गया।
मशहूर था कि डॉ. नगेन्द्र, प्रो. हरवंशलाल शर्मा और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की त्रयी विश्वविद्यालयों की दुनिया पर अखंड शासन कर रही है और उनमें भी संचालन सूत्र डॉ. नगेन्द्र के हाथ में ही है। वास्तविकता ठीक ऐसी नहीं थी, जैसी ऊपर से दिखाई पड़ती थी, पर इसमें आंशिक सच्चाई तो थी ही। कुल मिलाकर इन लोगों की कार्य-पद्धति में दबंगई ज़्यादा थी, पर कुचक्री ये कतई नहीं थे। नैतिकता, उचित-अनुचित के बीच अन्तर करने का विवेक और आत्मसम्मान परवर्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक था। सबसे बड़ी बात थी, क्षुद्रता और कायरता, आचार और व्यवहार दोनों में नहीं थी। उस पीढ़ी के जाने के बाद हिन्दी और हिन्दी विभागों का जो हश्र हुआ है, उस पर टिप्पणी करना बेमानी है।
डॉ. नगेन्द्र दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अन्तिम स्थायी अध्यक्ष थे। उसके बाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के विभाग के प्रस्ताव पर अध्यक्ष पद के चक्रानुक्रमण की पद्धति लागू हो गई। प्रस्ताव के कारण अकादमिक और शैक्षिक नहीं, दूसरे थे-कुछ ऐसी सुविधाओं की प्राप्ति जिनका सिलसिला ‘रोटेशन’ लागू होने पर बन्द हो गया। इससे सत्ता का जनतान्त्रीकरण तो हुआ पर पूरे तन्त्र में राजनीति, आपाधापी, षड्यन्त्रकर्मिता कुछ ऐसी बढ़ी जिसके परिणामों का इतिहास गवाह है। तानाशाही से मुक्ति तो कहीं-कहीं ही ज़रूरी थी, पर बदले में जो क़ीमत चुकाई गई, उस पर टिप्पणी अनावश्यक है।
उधर साहित्यकारों की आमद से शहर में जो सरगर्मी और शैक्षिक जड़ता को तोड़नेवाली पारस्परिकता और रचनात्मक ऊर्जा पैदा हुई, उसकी कहानी अलग है।