दिल्ली-6 में फिल्म प्रचार का अनोखा तरीका, Unique way of film promotion in Delhi-6
पुरानी दिल्ली के वो दिन भी अजीब थे। एक तरफ तो फिल्म देखने की मनाही, दूसरी तरफ फिल्मों के प्रति उत्सुकता। बचपन के वो दिन आज भी आंखों के सामने घुमते हैं जब हम रिक्शे पर लगे लाउडस्पीकर की आवाज दूर से ही सुनकर बालकनी में आ धमकते थे। दरअसल, तब प्रचार का मुख्य साधन पोस्टर ही थे। रिक्शे के पीछे व दोनों तरफ फिल्म के अलग अलग पोस्टर चस्पा कर दिए जाते थे। एवं एक शख्स माइक से दोस्तो, बहनों, भाईयों आपके नजदीकी सिनेमाघर में अमूक फिल्म लगी है, कृप्या जरूर देखने आए। साथ ही वह फिल्म का डायलाग भी बोलता था, वो भी खूब चिल्ला-चिल्लाकर। कभी विलेन के तो कभी हीरो के डॉयलाग बोलता था। लेकिन इससे भी ज्यादा उत्सुकता हमे उन कलाकारों को देखने की होती थी जो रिक्शे के पीछे चलते थे। ये पुरूष कलाकार होते थे लेकिन महिलाओं के गेटअप में। इनकी संख्या दो से तीन होती थी। यदि कोई रोमांटिक फिल्म है तो हीरो-हीरोइन होते थे। यदि कोई एक्शन मूवी है तो हीरो-हीरोइन संग विलेन भी होता था। विलेन का हुलिया तो भूला ही नहीं जा सकता। उसके लंबे-लंबे बाल होते थे। लंबा चौड़ा कद होता था। भारी आवाज होती थी, आंखे लाल होती थी। बचपन में कई बार इन्हें देखकर हम डर जाते थे। साथ ही ये पोस्टर लेकर भी चलते थे। जिन्हें दीवारों, खंभों पर चस्पा करते थे। उन दिनांे जामा मस्जिद, कश्मीरी गेट इलाके में पोस्टर बनाने वाले कलाकार थे। ये कलाकार हाथों से पोस्टर बनाते थे। एवं फिर इनका प्रचार होता था। तरीका इतना लाजवाब होता था कि लोग खुद ब खुद फिल्म देखने पहुंच जाते थे। बिजली के खंभों, दीवारों पर पोस्टर लगाए जाते थे।
प्रचार के और भी तरीके
पोस्टर बोलते हैं किताब के लेखकर इकबाल रिजवी कहते हैं कि पोस्टर के अलावा फिल्मों के प्रचार के कई और भी तरीके अपनाए जाते थे। फिल्म प्रचार का सबसे पहला माध्यम पोस्टर था। लेकिन इसके साथ अन्य तरीके भी अपनाए जाते थे। मसलन, अखबार में विज्ञापन छपवाए जाते थे। सिनेमाहाल में स्टूडियो चित्र भी लगाए जाने लगे, खासकर अगामी फिल्मों के चित्र लगाए जाते थे। इसे टेक्निकल भाषा में लॉबी कार्ड कहते थे। प्रचार का एक अन्य माध्यम फिल्म बुकलेट था। जो पोस्टर होता था, उसे मुख्य पृष्ठ पर बनाकर, फिल्मों की कहानी, गाने, कलाकारों के नाम लिख दिए जाते थे। इसका प्रयोग समाचार पत्र कार्यालयों को भेजा जाता था। ताकि समाचार पत्र फिल्म के बारे में जानकारी दे सके। होर्डिग भी एक बड़ा सशक्त माध्यम था। ये होर्डिग सिनेमाघर, शहर के मुख्य चौक चौराहों पर लगा देते थे। इसके अलावा भी प्रचार के कई अन्य माध्यम अपनाए गए लेकिन वो उतने प्रभावी नहीं हुए। मसलन, कुछ फिल्म कंपनियां कैलेंडर छापती थी। इसके उपर अमुक फिल्म की ही अभिनेत्री, अभिनेता का फोटो छाप देती थी। इस कैलेंडर को गिने चुने लोगों को भेंट किया जाता था। उर्दू की एक मैगजीन शमा ने 50 के दशक में एक बड़ी रोचक शुरूआत की थी। उन्होंने एक नंबर जारी किया और लोगों से कहा कि जो फिल्म सिनेमाहाल में लगी है, यदि उससे संबंधी जानकारी चाहिए तो फोन करें। यह कितना सफल रहा इसके बारे में तो सिर्फ कयास लगाए ही जा सकते थे। लेकिन यह एक रोचक तरीका है।
वर्तमान प्रचार का तरीका हाईटेक
इकबाल कहते हैं कि वर्तमान फिल्म प्रचार पूरी तरह से हाईटेक हो चुका है। प्रोमो रिलीज होता है तो वो यूटयूब पर ही होता है। पोस्टर भी सोशलमीडिया पर ही रिलीज होते हैं। फिल्म से संबंधित एक यूटयूब चैनल, फेसबुक पेज बना दिए जाते हैं। जहां लोग फिल्म से संबंधित जानकारी हासिल कर सकते हैं। हाथ से बनाए जाने वाले पोस्टर तो अब गुजरे दिनों की बात हो चुके हैं। हीरो-हीरोइन बड़े बड़े मल्टीप्लेक्स, यूनिवर्सिटी, चैनल स्टूडियो में जाकर प्रचार करते हैं।