टॉलस्टॉय मार्ग से निकलती हुई एक गली में कस्तूरबा गाँधी मार्ग की बहुमंजिला ऊँची अट्टालिकाओं की पृष्ठभूमि में उग्रसेन की बावली है जो इस्लामी स्थापत्य कला के नमूने पर बनी एक बहुत सुंदर निर्मिति है। कहा जाता है कि यह बावली उग्रसेन की ही बनवाई हुई है। इस बावली की एक विशेषता यह है कि इसका पानी कभी सूखता नहीं पुरानी दिल्ली में तैराक जवान भी और बड़े भी अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए इस बावली पर आते रहते हैं।
जमना तो दिल्लीवालों की जिन्दगी का एक अभिन्न अंग है। बारिश के मौसम में तो, जब इसमें पानी खूब भरा होता है, बल्कि इसमें बाढ़-सी आई होती है, यह तैराकों के जोश का सबसे बड़ा केन्द्र बन जाती है। जमना की तूफानी, बेताब लहरों का उतार-चढ़ाव कहीं-कहीं भँवर के रूप में चक्कर खाने वाली तेज़ लहरें और शोर मचाकर पुल से टकराता हुआ पानी, जियाले और हौसलामंद तैराकों को ललकारता है। और वे भी उन लहरों से खेलने के लिए अपने अंदर एक अजीब-गरीब जोश पाते हैं। खेल में अगर जोखिम का तत्त्व भी शामिल हो तो देखने वालों का आनंद दुगना हो जाता है। ऐसे में जमना पर जो दृश्य होता था, वह देखते ही बनता था। तैराक ऐसे-ऐसे जौहर और करतब दिखाते थे कि मुँह से अचानक ‘वाह’ निकलती थी ये तैराकी के मेले कहलाते थे और बरसात के मौसम में लगातार होते रहते थे।
मजनूँ के टीले से तैराक पानी में कूदते, खड़ी लगाते मीलो निकल जाते। कोई पानी पर सोता चला जा रहा है तो कोई पिंजरा हाथ में लिए है और सिर पर तोता बिठा रखा है। कोई सूई पिरो रहा है तो कोई साधु की तरह आलथी-पालथी मारे तैर रहा है। कोई मेंढक की तरह उछल उछल कर लहरों पर चला जा रहा है तो कोई बहाव के विरुद्ध शेर की तरह तैर रहा है। कोई चारपाई पर लेटा है तो किसी ने कोई और जोगिया आसन लगाया हुआ है।
तैराकों की अलग-अलग टोलियाँ बनी होती और वे एक-दूसरे से बाली ले जाने की कोशिश में तरह-तरह के करतब दिखाती उस्ताद और उनके शागिर्द तैरते चले आ रहे हैं। एक शागिर्द सिर पर अंगीठी रखे तैरता चला आ रहा है और दूसरा उस अँगीठी में से आग लेकर चिलम भरता तैरता चला आ रहा है। तीसरा भी चिलम उससे लेकर उस्ताद तक पहुँचा रहा है। उस्ताद हुक्के के दम लगाते चले जा रहे हैं।
तीन-चार शागिर्द लकड़ी के एक तख्ते को हाथों से थामकर तैरते चले आ रहे हैं। तख्तों पर वेश्या नाच रही है और साजिन्दे सारंगी और तबला बजा रहे हैं। संगीत की मनमोहक आवाज़ किनारों तक आ रही है। लेकिन लोगों की आंखें करती नृत्य हुई वेश्या पर जमी है और सब उस चित्ताकर्षक तमाशे पर आश्चर्यचकित हैं। कुछ तैराक अलग-अलग भी तैर रहे हैं, मगर कमाल उनकी तैराकी में भी है। एक तैराक सीधा पानी में आधा डूबा हुआ है और ऐसा मालूम होता है कि खड़ा होकर तैर रहा है। एक तैराक बेजान तख्ते की तरह उल्टा लेटा वहा चला जा रहा है। किसी ने अपनी पीठ पर गुलदस्ते सजाए हुए हैं। एक तैराक ने अपने एक हाथ में हनुमान की मूर्ति पानी की सतह से ऊपर उठाई हुई है और ‘जय बजरंग बली’ की आवाज़ लगाता हुआ तैर रहा है। एक ने अपने दोनों कंधों पर एक-एक पक्षी बिठा रखा है और मजाल है कि उनमें से एक भी उड़ जाए।
मुग़लों के अंतिम दौर में एक मशहूर तैराक मीरमाही गुज़रा है। वह अपनी कला में पंडित था और जल में मछली की-सी तेजी और सहजता से तैरता था। हाल ही के जमाने में उस्ताद बुन्दू और खलीफा नन्हे ने बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली थी और तमाम दिल्लीवाले उन्हें बड़ी क़द्र और इज्जत की निगाह से देखते थे। 1
उस बीते हुए ज़माने के बारे में सोचते हैं तो दिल में एक कचोका-सा लगता है। जमना वही है मगर तैराकी के वे दृश्य ऐसे ओझल हो गए कि कभी देखने में नहीं आएँगे। बावलियाँ मौजूद हैं उनमें पानी भी है मगर अब उनकी हैसियत जीवन्त मनोरंजन स्थलों की नहीं बल्कि प्राचीन अवशेषों की है। तैराकी की कला सुप्त नहीं हुई, मगर उसकी वह लोगों को मोहित करने वाली स्थिति समाप्त हो गई। तैराकी की प्रतियोगिताएँ आज भी होती हैं, मगर बड़े-बड़े स्टेडियम या शानदार होटलों और क्लबों में आज के तैराक गली-कूचों के लड़के और नौजवान नहीं है बल्कि उच्च घरानों के सुशिक्षित लड़के और लड़कियाँ हैं। जमना के किनारे तैराकी के वे मेले और बावलियों पर तैराकों के वे जमघट और जनता की भीड़, एक स्वप्न बनकर रह गए हैं।