स्वतंत्रता दिवस

भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया, मगर उसके साथ ही देश के दो टुकड़े भी हो गए। पाकिस्तान बना, जिसमें उत्तर-पश्चिम सूबा, सिंध और बिलोचिस्तान तथा बंगाल का पूर्वी भाग और पंजाब का पश्चिमी भाग शामिल कर दिए गए। बाकी के भाग हिंदुस्तान में रहे। देश के दो टुकड़े क्या हुए, हिंदू-मुसलमानों के दिलों के भी दो टुकड़े हो गए। कल तक जो भाई-भाई थे, वे आज एक-दूसरे के खून के प्यासे बन बैठे। देश में हाहाकार मच उठा, चारों ओर मार-काट और लूट-खसोट का बाजार गर्म था। खून की नदियां बह रही थीं और मनुष्यता से गिरे हुए जितने भी काम हो सकते थे, वे सब हो रहे थे।

दिल्ली भी इस आग से न बच सकी। अभी आजादी का जश्न अच्छी तरह पूरा भी होने न पाया था कि पंजाब से हौलनाक खबरें आने लगीं और दिल्ली दंगे-फसाद, मार-काट का गढ़ बन गई। खुलेआम कत्ल और लूट-मार होने लगी। तुरंत ही कफ्यू लगा दिया गया, मगर अगस्त का आखिरी सप्ताह और सितंबर का पहला सप्ताह रात-दिन जागते बीता। किसी की जान महफूज न थी, किसी की इज्जत सुरक्षित न थीं। लोग घरों में बंद थे और जो बाहर निकलते थे, वे मुश्किल से घर लौटकर आते थे। चारों ओर भगदड़ मच गई। मुसलमान शहर छोड़-छोड़कर भागने लगे और पंजाब के शरणार्थी हिंदू यहां आने लगे। उन दिनों की याद से कलेजा मुंह को आता है। अपनी ही हुकूमत और यह हाल !

आखिर, तार भेजकर गांधीजी को दिल्ली बुलाया गया। वे कलकत्ता के दंगे से निपटे ही थे। हालात सुनकर वह तुरंत दिल्ली के लिए रवाना हो गए और 9 सितंबर को दिल्ली पहुंचे। हरिजन कालोनी, जहां वह ठहरते थे, शरणार्थियों से भरी पड़ी थी। लाचार उन्हें विरला भवन में ठहरना पड़ा। उनके आने से दिल्ली में शांति तो अवश्य हो गई, मगर उनके मन की शांति काफूर हो गई। उन्होंने 125 वर्ष तक जीने की बात मन से निकाल ही दी। वह उन हालात को सहन करने में असमर्थ थे, जो उनके देखने में आ रहे थे। जब उनसे अधिक सहन न हो सका तो उन्होंने आमरण व्रत रख लिया, ताकि दोनों कौमें समझ जाएं और गुमराही का रास्ता छोड़ दें। उनके उपवास का प्रभाव होना तो लाजमी था। दंगे-फसाद बंद भी हो गए, मगर दिल के जहर न धुल सके, फटे दिल फिर जुड़ न सके। उसके परिणामस्वरूप सारी कौम को एक ऐसा कलंक लग गया, जिसे कभी धोया नहीं जा सकता। 30 जनवरी की शाम के 5 बजकर 17 मिनट पर जब कि वह प्रार्थना स्थान पर पहुंचने ही वाले थे, एक आततायी ने गोली मारकर उनका शरीरांत कर दिया। सारा देश शोक-सागर में डूब गया और हाथ मलता रह गया- ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़ियां चुग गई खेत। ‘

31 जनवरी को गांधीजी की अर्थी निकली। लाखों नर-नारी नौ-नौ आंसू रो रहे थे। चारों ओर हिरास और निराशा फैली हुई थी। दिल्ली दरवाजे के बाहर बेला रोड पर राजघाट का मैदान दाह-संस्कार के लिए चुना गया था। शाम के पांच बजे दाह संस्कार हुआ और इस तरह भारत का सबसे उज्ज्वल सितारा सदा के लिए अस्त हो गया।

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