आपातकाल के दौरान राजनेताओं को किया गया था नजरबंद, जनता पर पुलिस ने ढाए सितम
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
भारतीय राजनीति में एक नाम ऐसा है, जिसे सुनते ही एक ऐसी शख्सियत की तस्वीर उभर आती है, जिसने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए हर जतन किया – इंदिरा गांधी। जिन्हें उनके बहादुरी वाले निर्णयों के लिए ‘आयरन लेडी’ (Iron Lady) कहा जाता था, लेकिन उनकी शख्सियत का एक पहलू आपातकाल 1975 (Emergency1975) भी है।
25 जून 1975 को उन्होंने देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को धता बताते हुए आपातकाल लगा दिया। हजारों नेताओं को जेल में डाल दिया गया, प्रेस की आजादी छीन ली गई, और जनता पर अमानवीय ज्यादतियां हुईं। यह वह दौर था जब इंदिरा गांधी अपने आगे किसी को नहीं चलने देती थीं, और आलोचक उन्हें निरंकुश बताते थे. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक समय ऐसा भी आया जब वे पूरी तरह टूट गईं? एक ऐसा पल जब उन्होंने अपना सिर दोनों हाथों में थाम लिया और हताशा में बोलीं, “मैं क्या करूं, मैं क्या करूं?” यह वाकया आपातकाल के बीच का है, जब देश को अनुशासन के नाम पर रौंदा जा रहा था, लेकिन कहीं न कहीं खुद प्रधानमंत्री भी अंदर से अकेली और अनभिज्ञ महसूस कर रही थीं।
यह हैरान कर देने वाला खुलासा भारतीय विदेश सेवा के राजनयिक और प्रख्यात राजनीतिज्ञ के. नटवर सिंह (K. Natwar Singh) ने अपनी किताब “एक जिंदगी काफी नहीं” (Ek Zindagi Kafi Nahin) में किया है. नटवर सिंह, जो उस समय इंग्लैंड में नियुक्त थे, ने आपातकाल के दौरान के अनुभवों को करीब से देखा और महसूस किया था।

विदेशों में आपातकाल का विरोध और नटवर सिंह की दिल्ली यात्रा
25 जून 1975 को भारत में आपातकाल की घोषणा ने पूरे देश को हिला दिया था. इसका असर केवल भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि विदेशों में भी इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. इंग्लैंड में भारतीय दूतावास (Indian High Commission, London) के सामने लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, जिसने राजनयिकों की मुश्किलें बढ़ा दी थीं. इन सबके बीच, दिसंबर 1975 में नटवर सिंह को विदेश मंत्रालय से दिल्ली बुलाया गया.
दिल्ली पहुंचकर नटवर सिंह ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लंदन में हो रही दिक्कतों और आपातकाल के कारण पैदा हुई अंतरराष्ट्रीय असहजता के बारे में बताया. लेकिन उनकी बात को इंदिरा गांधी ने झट से टाल दिया. नटवर सिंह लिखते हैं कि प्रधानमंत्री ने उलटा यह कह दिया कि “आपका हाई कमीशन सही तरह से काम नहीं कर रहा.” नटवर सिंह यह नहीं समझ पाए कि प्रधानमंत्री इस नतीजे पर कैसे पहुंचीं. उन्हें बस इतना ही कहना था कि वे लंदन में हालात संभालने की पूरी कोशिश कर रहे थे.
लंदन में ‘आपातकाल‘ का विचार बेचना असंभव
नटवर सिंह बताते हैं कि लंदन में आपातकाल के विचार को ‘बेचना’ लगभग असंभव था. ब्रिटेन को कई मायनों में भारत का ही विस्तार माना जाता था, और वहां के लोग भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने इंदिरा गांधी को यह भी बताया कि कई भारतीय मंत्री, संसद सदस्य और वरिष्ठ अधिकारी लंदन आकर भारतीय हाई कमिश्नर से अनुरोध कर रहे थे कि उनकी मुलाकात ब्रिटिश लेबर और कंजरवेटिव दलों के सदस्यों से करवाई जाए, ताकि वे आपातकाल का औचित्य समझा सकें. लेकिन ब्रिटिश प्रतिष्ठान में कोई भी इन ‘दिग्भ्रमित’ (disoriented) भारतीय अधिकारियों से मिलना नहीं चाहता था. इंग्लैंड में आपातकाल को सही ठहराना बेहद मुश्किल था.
अमेरिका में भी हालात कुछ ऐसे ही थे. न्यूयॉर्क की जानी-मानी हस्ती और जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी की करीबी मित्र डोरोथी नॉरमन (Dorothy Norman) तक ने आपातकाल का पुरजोर विरोध किया था.
बंसी लाल और संजय गांधी का बढ़ता प्रभाव
नटवर सिंह जब दिसंबर में भारत आए, तो उन्हें यह महसूस हुआ कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस समय रक्षा मंत्री बंसी लाल (Bansi Lal) और अपने छोटे बेटे संजय गांधी (Sanjay Gandhi) जैसे लोगों के प्रभाव में थीं. ये लोग लगातार प्रधानमंत्री को यह समझा रहे थे कि आपातकाल कितना आवश्यक था और उसे जनता का भरपूर समर्थन प्राप्त है. उन्हें यह भी बताया गया कि आपातकाल के कारण गाड़ियां समय पर चल रही थीं, अधिकारी समय की पाबंदी का पालन कर रहे थे और पूरे देश में अनुशासन को कड़ाई से लागू किया गया था. यहां तक कि प्रसिद्ध संत आचार्य विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) ने भी आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ का नाम दिया था.
राजीव गांधी की बेबसी और संजय गांधी की ‘शक्तियां‘
कुछ दिनों बाद, प्रधानमंत्री ने नटवर सिंह को दोपहर के भोजन पर बुलाया. उस दिन मेज पर राजीव गांधी (Rajiv Gandhi), सोनिया गांधी (Sonia Gandhi), संजय गांधी और फारूख अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) भी मौजूद थे. नटवर सिंह लिखते हैं कि विवादित विषयों पर कोई चर्चा नहीं हुई, लेकिन वे देख सकते थे कि राजीव गांधी अपने भाई संजय गांधी की गतिविधियों से संतुष्ट नहीं थे और आपातकाल से जुड़े मसलों पर कितने असहाय महसूस कर रहे थे.
इस बात की पुष्टि बी.के. नेहरू (B.K. Nehru) ने भी अपने संस्मरणों में की है. उन्होंने लिखा है कि उन्होंने राजीव गांधी से संजय गांधी के बारे में बात की थी. राजीव बहुत असंतुष्ट, मायूस और परेशान थे, क्योंकि जो कुछ हो रहा था, वह उन सभी के साथ हो रहा था जो संजय के मित्र या समर्थक नहीं थे. जब बी.के. नेहरू ने राजीव से पूछा कि उनकी मां ने यह सब करने की अनुमति क्यों दी, तो राजीव ने कहा कि तथ्य यह था कि उन्होंने सब कुछ अपने बेटे के हाथों में छोड़ दिया था. वे प्रधानमंत्री के रूप में अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर पा रही थीं, उन्होंने वे शक्तियां संजय के हाथों सौंप दी थीं. नटवर सिंह ने भी देखा कि संजय गांधी स्वयं देश के राष्ट्रपति और विदेश मंत्री के रूप में पेश आ रहे थे.
और फिर आया वो पल…
ऐसा लगता था मानो इंदिरा गांधी को खुद भी पता न हो कि देश के भीतर क्या हो रहा था. नटवर सिंह की पत्नी, जिन्हें मित्र-परिजनों में ‘फोरी’ (Fory) नेहरू कहा जाता था (वास्तविक नाम मगदोलना फ्रीडमैन, विवाह के बाद शोभा नेहरू), उन्हें इंदिरा गांधी से सच कहने में कोई दिक्कत नहीं होती थी. उन्होंने इंदिरा गांधी को बताया कि उन्होंने चंडीगढ़ के बारे में सुना था कि वहां युवकों व बूढ़ों की अनिवार्य नसबंदी (Forced Sterilization) के कारण भारी असंतुष्टि फैली थी, और यह खबर सच थी.
यह सुनकर, इंदिरा गांधी ने अपने दोनों हाथों में सिर थाम लिया और हताशा में बोलीं, “मैं क्या करूं, मैं क्या करूं? वे लोग मुझे कुछ भी तो नहीं बताते.“
यह पल दिखाता है कि कैसे एक शक्तिशाली नेता भी अपने ही तंत्र के जाल में फंसकर असहाय महसूस कर सकता है, खासकर जब उन्हें अपने सबसे विश्वसनीय लोगों से ही पूरी जानकारी न मिल पा रही हो. इंदिरा गांधी का यह अकेलापन और बेबसी एक ऐसे दौर की कहानी कहती है, जब सत्ता के गलियारों में कुछ मुट्ठी भर लोगों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि प्रधानमंत्री तक को सही तस्वीर नहीं मिल पा रही थी. यह घटना भारतीय राजनीति के एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद अध्याय की एक मानवीय झलक पेश करती है, जो आज भी कई सवाल खड़े करती है.
Q&A
Q1: ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ किताब के लेखक कौन हैं?
A1: इस किताब के लेखक भारतीय विदेश सेवा के राजनयिक और प्रख्यात राजनीतिज्ञ के. नटवर सिंह हैं.
Q2: इंदिरा गांधी ने ‘मैं क्या करूं, मैं क्या करूं’ यह बात किस संदर्भ में कही थी?
A2: उन्होंने यह बात तब कही थी जब उन्हें अनिवार्य नसबंदी (Forced Sterilization) के कारण चंडीगढ़ में फैली असंतुष्टि के बारे में पता चला था, और उन्हें यह जानकर निराशा हुई कि उनके अपने लोग उन्हें सही जानकारी नहीं दे रहे थे.
Q3: आपातकाल के दौरान संजय गांधी का क्या प्रभाव था?
A3: किताब के अनुसार, संजय गांधी का प्रभाव काफी बढ़ गया था. वे सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के अधिकारों का प्रयोग कर रहे थे और ऐसा लगता था कि प्रधानमंत्री ने अपनी कई शक्तियां उन्हें सौंप दी थीं.
Q4: आचार्य विनोबा भावे ने आपातकाल को क्या नाम दिया था?
A4: आचार्य विनोबा भावे ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ का नाम दिया था.
Q5: किस देश में आपातकाल का सबसे ज़्यादा विरोध हुआ था?
A5: इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में भारतीय आपातकाल का भारी विरोध हुआ था, और इन देशों में इसे सही ठहराना बेहद मुश्किल था.
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