अंग्रेजों ने 1812-1813 ई. में यह कोशिश की थी की हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजी शिक्षा दें। मगर इसमें वे सफल नहीं हुए थे। 1825 ई. में अंग्रेजों ने अजमेरी दरवाजे के बाहर बने मदरसा-ए-गाजीउद्दीन को अंग्रेजी कॉलेज में बदलकर उसका नाम दिल्ली कॉलेज रखा। यह कालेज बाद में कुछ अर्से के लिए ऐंग्लो-ए-अरबिक कॉलेज कहलाया और फिर आज़ादी के बाद दिल्ली कॉलेज हो गया। अंग्रेज़ों ने शिक्षा की पुरानी पद्धति बदलनी शुरू कर दी, इससे अरबी और फ़ारसी की तालीम को नुक़सान पहुंचा।
दीनी मक्तब एक-एक करके बंद होने लगे और मजहबी तालीम सिर्फ़ चंद मस्जिदों तक सीमित रह गई। शुरू-शुरू में तो हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करना कम किया था लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या बढ़ती गई। उस समय के नामी प्रोफ़ेसरों और शिष्यों में मास्टर रामचन्द्र, मास्टर प्यारे लाल ‘आशोब’, मुंशी करीमुद्दीन, मौलवी जकाउल्लाह, मौलवी नजीर अहमद, मुंशी भैरों प्रसाद, मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद, मुकुंदलाल माथुर और पं. मनफूल शामिल थे। मगर जहाँ तक दिल्ली वालों का संबंध था उन्हें अंग्रेजी से लगाव नहीं था और उनके सीने में एक आग सी भड़कती रही।
दिल्ली में ताकत हासिल करने के बाद अंग्रेज़ों ने मिशनरियों के जरिए दिल्ली की शिक्षा संस्थाओं में ज्यादा हस्तक्षेप शुरू कर दिया था। मि. टेलर दिल्ली कॉलेज में प्रिंसिपल थे और मास्टर रामचंद्र गणित के विशेषज्ञ थे और उन्होंने एक पुस्तक अंग्रेज़ी में ‘सबसे बड़े और सबसे छोटे अंकों की समस्याएं लिखी थी। 1841 ई. से 1856 तक दिल्ली कॉलेज कश्मीरी दरवाजे के पास दारा शुकोह के पुस्तकालय में चलता रहा। मिर्जा गालिब को भी इस कॉलेज में पढ़ाने के लिए अधिकारियों ने नौकरी देनी चाही थी लेकिन जब गालिब पालकी में बैठकर कॉलेज पहुंचे तो अंग्रेज प्रिंसिपल उन्हें लेने के लिए दफ्तर से बाहर नहीं आया। इस पर मिर्जा नाराज हो गए और वापस घर चले आए। जब उन्हें समझाया गया कि आप नौकरी के लिए गए थे, आपको खुद प्रिंसिपल के पास जाना चाहिए था तो मिर्जा बोले, प्रिंसिपल मेरा दोस्त है। ऐसी नौकरी किस काम की जिसमें दोस्ती भी न रहे।