पूरी दुनिया में मीडिया , पत्रकारिता और समाचार की हालत ठीक नहीं

लेखिका: मोनिका दुबे

हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

 उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का एक महत्वपूर्ण प्रतिवाद औपनिवेशिक क्षेत्रो में राष्ट्रवाद का उदय था। ये राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन जिनके परिणाम स्वरुप औपनिवेशिक क्षेत्रो को राजनितिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई कई रूपों में उभरे जिनमे भारत के अहिंसावादी राष्ट्रवाद से लेकर फ्रांस के विरुद्ध अल्जेरिया का उग्र राष्ट्रवाद सभी निहित है। राष्ट्रवाद को १९ शताब्दी तथा २०वी शताब्दी का धर्म कहा गया है। पिछले २०० सालो में राष्ट्रवाद सभी प्रकार की विचारधाराओ जैसे उदारवाद,समाजवाद,फासीवाद तथा पूर्व-उपनिवेशी राज्यों के साथ जुड़ा रहा है और कई चुनौतियों के बावजूद एक विजेता के रूप में उभरा है । संसार में प्रय्तेक देश में राष्ट्रवाद पहले नंबर पर आता है तथा विचारधारा दूसरे स्थान पर। ९० के दशक में सेवियत यूनियन के विघटन और वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्रवाद एक जरुरी तत्व के रूप में उभरा।

                      राष्ट्रवाद एक आधुनिक परिघटना है।  राष्ट्र या राष्ट्रवाद एक कल्पना मात्र है, जो की किसी भू-भाग के लोगों की आपसी सांस्कृतिक एकता को बनाये रखने का काम करती है।  आधुनिक अर्थ में यह –“अपनी जानी- पहचानी भूमि तथा लोगो की अभिव्यक्ति माना जाता है जिन्हें देशभक्ति का सार माना जाता है।  

हेयस के अनुसार -राष्ट्रवाद एक ऐसी मानसिक अवस्था जिसमे राष्ट्रीयता के प्रति गर्व की भावना,निष्ठा विचार सभी अन्य निष्ठाओ से ऊंचा होता है तथा अपनी राष्ट्रीयता के प्रति गर्व की भावना इसकी अंतर्निहित श्रेष्ठता एवं  इसके लक्ष्य इसके अभिन्न अंग होते हैं। इसके विपरीत ग्लेनर का विचार है कि राष्ट्रवाद मूलतः एक राजनैतिक सिद्धांत है।  गिद्दंस ने राष्ट्रवाद के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर बल दिया है।

                      राष्ट्रवाद के दो पक्ष है पहला राजनैतिक सिद्धांत से प्रेरित दूसरा है अस्मिता।  एक में राष्ट्र राज्य की सामानांतर पक्ष सामान होना चाहिए दूसरे में सांझी अतीत संस्कृति भूमि से जुडाव इत्यादि। राष्ट्रवाद की एक महत्वपूर्ण भूमिका भिन्न सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्टार पर लोगो को इकट्ठा करने की क्षमता है।  राष्ट्रवाद केवल शासक वर्ग द्वारा अपने लिए बिना शर्त निष्ठा प्राप्त करने के लिए किया गया एक साधन मात्र नहीं है बल्कि विश्वास पैदा करना है की लोगो में उन्हें जोड़ने वाले सांझे तत्व अधिक है तोड़नेवाले कम।

राष्ट्रवाद की निरंतरता को समझने के लिए यह एक मुलभूत तत्त्व है कि राष्ट्र को भौगोलिक इकाई से निकाल कर उसको सांस्कृतिक और जातीय बोध से युक्त किया जाये।  इस जातीय बोध का निर्माण करने के लिए कई बार उनको एक सामान धर्मी धर्म संस्कृति परंपरा और कलाओं का हवाला दिया जाता है तो कभी एक तरह की जीवन शैली का।

      आज बदलते युग और तकनीक ने एक नये तरह की राष्ट्रवाद की संकल्पना को जन्म दिया है जो कि टेलीविजन या मीडिया की देन कही जा सकती है। पूरी दुनिया में मीडिया , पत्रकारिता और समाचार की हालत ठीक नहीं है। शायद यह दौर हीं हैं तोड़-मरोड़ कर बोलने वालों का । यहाँ मिर्च –  मसाला लगी और चटपटी बातों को लाजवाब माना जाता है और यह हाल पूरी दुनिया का है , किसी एक देश का नहीं।जब मीडिया की भूमिका आज के परिप्रेक्ष्य में जितनी सकारात्मक है उससे कहीं ज्यादा नकारात्मक रूप में हमारे सामने आ रही है।  मीडिया ने सूचना एवं तकनीकी को बहुत ही वृहद स्तर पे हमारे सामने प्रस्तुत किया है।  हम मीडिया की उन उपलब्धियों को दरकिनार नही कर सकते जो उसने लोगों तक हर बात पहुंचाकर उनमे देश और राष्ट्र के प्रति प्यार और एकता की भावना को विकसित किया है।  परन्तु हमें यह भी नही भूलना चाहिए की मीडिया ने ही अपने फायदे या टीआरपी बढाने के लिए धर्म व् संस्कृति के मुल्यों को तोड़ने मरोड़ने का काम किया है।

आजकल एक बात बहुत ध्यान देने योग्य है और वो ये कि मीडिया राष्ट्रहित व् अन्य जरुरी मुद्दों को छोडकर केवल सत्ता की सेवा  में लगी हुई है अर्थात वह केवल सरकार के इशारे पर प्रायोजित रिपोर्टिंग कर रही है।  इसके अतिरिक्त ये फ़िल्मी हीरो- हेरोइनो की कवरेज को प्रमुखता देखर देश की अन्य ज्वलंत खबरों को उपेक्षित कर रही है  जैसा कि प्रमाणिक है की आज के सौ -दो साल पहले तक छोटे राज्य और कबीले हुआ करते थे जो अपने अस्तित्व के लिए लड़ा करते थे और उस वक्त उन्हें राष्ट्रीयता से कोई सरोकार नही था ।  परन्तु वैश्वीकरण के इस दौर में सूचना एवं तकनीकी के कारण प्रत्येक व्यक्ति का जुड़ाव अपने ही देश रहा है और इससे कट्टर राष्ट्रवाद ने पूरी दुनिया को अपनी जद में लिया तब से मीडिया और पत्रकारिता ने भी दम तोड़ना शुरू कर दिया।

एक-एक करके कई देशों ने अपने लिए हिटलर के समान शासक का चुनाव कर लिया। अब जब हिटलर आपका शासक होगा तो “हिटलर-गिरी” भी होगी हीं ।हिटलर के दौर को पढ़ेगें तब जानेगें कि वो स्वयं को बहुत बड़ा देश भक्त बताता था। वह जनता के सामने रोता था , गिड़गिड़ाता था , जनता को बहलाता और फुसलाता है। वो दिखलाता था कि उसके लिए देश पहले है और वह सिर्फ देश के लिए समर्पित है।आप जब हिटलर को पढ़ेगें तो जानेगें कि उसको जनता का अपार समर्थन प्राप्त था। उसकी बातें सभी को सच लगती थीं।फिर धीरे-धीरे हिटलर ने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया ।

मगर जबतक जनता जागती तबतक उनका देश बर्बाद हो चुका था।इतिहास गवाह है कि जब भी दुनिया में कहीं भी क्रूर शासनकाल आया तब शासक घोर राष्ट्रवादी हुआ करता था ।इतिहास इस बात का भी गवाह कि “कलम” क्रूर शासकों का निशाना हुआ करता था ।निडर होकर लिखने-बोलने वालों को दबाया जाता था ताकि उनकी कलम जनता को सच ना पढ़ा सके ।लेकिन पत्रकारिता ने हमेशा झूठ को बेनकाब किया । हर देश में यह होना चाहिए । आखिर देश की जनता अपने देश से प्यार नहीं करेगी तो सुरक्षा कैसे करेगी ? राष्ट्रवाद की भावना ने  हीं हिंदुस्तान को आजाद करवाया ।

राष्ट्रवाद एक जरूरी तत्त्व है लेकिन कट्टर राष्ट्रवाद की कहीं जगह नहीं होनी चाहिए ।अगर आपका राष्ट्रवाद मानवाधिकार को कुचल रहा है तो वह राष्ट्रवाद नहीं हिटलर-वाद है।आपको फर्क समझना होगा।पहले कम-से-कम इस बात की संतुष्टि होती थी कि चलो कुछ न सही मगर पत्रकार हमें हकीकत से रूबरू करवायेगा , सच दिखाएगा , पढ़ायेगा ।लेकिन पेड मीडिया संस्कृति ने हमारे न्यूज चैनलों , अखबारों , पत्रिकाओं और पत्रकारों को भी बदल दिया।अब पूरी दुनिया रियल और फेक न्यूज के जाल में फंसी है। कभी-कभी तो दिन की सारी खबरें फर्जी होती हैं।भारत में 4-5 सालों में बहुत हद तक मीडिया के रूप-रंग में अविश्वसनीय परिवर्तन आया है। अभी पिछले दिनों की बात है जी न्यूज जैसे बड़े चैनल ने एक खबर दिखाई की लालू यादव को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली उनकी पत्नी से टेलीफोनिक साक्षत्कार के जरिये बधाई भी दे डाली थोड़ी देर बाद उन्होंने माफ़ी मांग ली इससे इन चैनलों इससे हमारे यहाँ मीडिया कारपोरेट घरानों के हाथों बिक गई है इसको समझा जा सकता है। हैं।

                     भारत में अब मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ की जगह दल विशेष का चौथा हाथ बन गई है।यहाँ पहले से हीं सोशल मीडिया का इस्तेमाल फर्जी खबरों को फैलाने के लिए किया जा रहा था , अब तो प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी इसी काम को अंजाम दे रहे। अब जो पत्रकार और पत्रकारिता का जो स्वरुप उभरा है उसमे पत्रकार पार्टी विशेष के पैरोकार या प्रवक्ता नज़र आने लगे हैं वो अब निष्पक्ष नज़र नहीं आते हैं न हीं जनता के करीब बल्कि जनता के लिए पत्रकारिता करने से ज्यादा राष्ट्र निर्माण होता।

एक राष्ट्र को एक मुद्दे या एक सूत्र में बाँधने का काम जो मीडिया कर सकती थी वो कोई और नहीं कर सकता एक चैनेल जहाँ कहता है कि फलां नेता ने घोटाला किया तो सभी चैनेलो का ये कर्तव्य होना चाहिए था कि वो जनता के संसाधनों के दुरूपयोग करने वाले इस नेता के खिलाफ एक राष्ट्र व्यापी मुहीम बनाता न की उसके खिलाफ माहौल बनाता और उसकी लिपा- पोती करते ऐसे में उनको जनता के बीच जा कर एक जनमत निर्मित करना चाहिए था एक समय एक फिल्म आयी थी मै आज़ाद हूँ उस फिल्म का नायक जब एक व्याख्यान देता है और भ्रष्ट्राचार के खिलाफ उठ खडा होता है तब वो मीडिया ही थी जो उसे बनाती है और जा वो जनता को एक सूत्र में बंधता देखती है तो उसको तोड़ने के लिए उसके खिलाफ लिखना शुरू करती है क्यूँकी उसको कॉर्पोरेट घराने चीनी मिल के मालिको से अपने लिए चन्दा लेना होता है वो सरकार से पेपर पर सब्सिडी लेना चाहती है।

मनु भंडारी कृत महाभोज में तो मीडिया के इस पूरे चरित्र को उघाड़कर रख दिया है मनु भंडारी जी ने महाभोज उपन्यास में बताया है कि मीडिया एक महाभोज है जिसकी पंगत में मंत्री से संतरी सब शामिल है सबकी सांठ-गाँठ मीडिया से है। आज यह बात शत प्रतिशत सही है कि आज मीडिया गोदी मीडिया हो गयी है ऐसे में जन पत्रकारिताता का लोप हो गया है। ऐसे में क्या मीडिया के लिए संभव है कि वो राष्ट्र के प्रति वो अपना कर्तव्य निर्वाह कर पायेगी या समभाव पूर्ण संस्कृति को बिना क्षति पहुंचाए राष्ट्र निर्माण कर पायेगी।  मीडिया अगर चौथा स्तम्भ गयी जाती है तो उसे अपनी उस गरिमा को बचाना होगा।  

अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा कि न ही राष्ट्र का अस्तित्व बचेगा और न ही मीडिया का ही अस्तित्व। मीडिया का यह कर्तव्य होना चाहिए की वो इस तरह प्रत्येक मानस पटल ऐसी छाप छोड़े और भोली नादान जनता का मार्ग्दार्श्निस तरह का मार्गदर्शन करे की जिससे प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र निर्माण में अप उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद निर्माण में  यथा शक्ति योगदान दे और सांस्कृतिक व् सामजिक सद्भाव का माहौल पैदा करे जिससे की समस्त व्यक्तियों को एक भयमुक्त माहोल मिल सके और उसको राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका नजर आ सके।  

जैसे की मीडिया कभी मजदूरों की बात नही करता बल्कि सरकार की नीतियों का ही गुणगान करती रहती है जो की एक गलत व्यवहार है। उसको जनता का वकील बनना है न कि सरकार का। जनता का वकील बनकर हीं राष्ट्रवाद की चेतना का निर्माण कर पायेगा।

(नोट: लेख में व्यक्त विचार नितांत निजी हैं, यह संस्थान के नहीं हैं।)

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