मुगलिया दौर में दिल्ली की रौनक शाम को पांच बजे के बाद फिर से शुरू हो जाती। सबसे पहले भिश्ती निकलते जो अपनी चमड़े के मश्कों से सड़क की मिट्टी और धूल दबाने के लिए पानी का छिड़काव शुरू कर देते। फिर पान वाले पान बनाने की तैयारी करते और कक्कड़ वाला अपना हुक्का लेकर घूमने लगता।
अफीम और भंग की दुकानें भी अपना कारोबार शुरू कर देतीं। उत्तरी भारत में अफीम धूम्रपान की जाने के बजाय पी जाती थी, और अफीम की लत उस समय एक बड़ी सामाजिक समस्या थी। चूंकि अफीम की पैदावार और बिजनेस पर पूरी तरह कंपनी का कब्ज़ा था, और 1850 के दशक तक अंग्रेजों के अफीम निर्यात का कुल 40 प्रतिशत भारत से ही जाता था, इसलिए इसे पीने पर कंपनी की ओर से किसी तरह का नियंत्रण किए जाने का तो सवाल ही नहीं था।
सूफी मजारों पर भी गहमागहमी होने लगती और दोपहर को इक्का-दुक्का लोगों के आने के बजाय अकीदतमंदों और भक्तों की भीड़ लग जाती। गुलाब की पत्तियां बेचने वाले भी नींद से जागते और दरगाह के कव्वाल तबला और ढोल संभालते और अल्लाहू अल्लाहू क़व्वालियां शुरू कर देते।
लाल किले में सलातीन के लिए यह तीरअंदाजी का अभ्यास करने का बेहतरीन वक़्त था और साथ-साथ बटेरों और मुर्गों की लड़ाई और मेंढे व कबूतर उड़ाने का मौका भी। गर्मी में कुछ लोग लाल किले के नीचे तैराकी या नहाने के लिए भी चले जाते लेकिन यह खतरे से खाली न था। एक बार मई में सत्रह साल के मिर्जा कौस शिकोह जिनकी तीन हफ्ते पहले बहुत धूमधाम और नाच गाने से शादी हुई थी, शाम को नहाने निकले और उनको घड़ियाल उठाकर ले गया।
बरसात के मौसम में मर्दों के लिए पतंगबाजी और औरतों के लिए झूलों का इंतजाम किया जाता था। बादशाह जफर उस वक्त अपने कमरे से नीचे दरिया में हाथियों को नहाते, या मछेरों को जाल बिछाते देखते। यह उनका खास पसंदीदा शौक था।
उसके बाद शाम को वह लाल किले के संतरों के बागों में अक्सर पैदल और कभी पालकी में हवाखोरी के लिए निकलते। मुगलों के लिए बाग जन्नत के अक्स थे। और पौधों और फूलों की जानकारी सभ्य दिमाग की खासियत मानी जाती थी। जफर वहां घूमते हुए बागबानों को निर्देश देते जाते कि “आम की कलम हयातबख़्श बाग भेजी जाए या संतरों के दरख्तों के पौधे और केलों के पेड़ों की छांट एक गिरोह में उस नए बाग़ में लगाई जाए जो उन्होंने अपने निवास के नीचे यमुना किनारे खुद खड़े होकर लगवाया था।”
कभी-कभी जब ज़फ़र ज़्यादा तरंग में होते तो वह खुद दरिया में जाकर मछलियां पकड़ते या शाम भर सलीमगढ़ के पास रेत पर पतंग उड़ाते। कभी-कभी वह ग़ालिब को भी दिल बहलाने के लिए वहां बुलवा भेजते। हालांकि ग़ालिब को इस तरह शाही दरबारी बनना बिल्कुल पसंद न था । और वह इससे उकता जाते थे। उन्होंने अपने एक दोस्त को 1856 में लिखा कि तुम्हारे सर की कसम दिन भर चापलूसी करने के बाद जब रात को सोने को लेटता हूं तो मैं इतना थका हुआ हूं जैसे कोई मजदूर।
और छावनी में उस वक़्त कुछ मुस्तैद अफसर शाम की परेड का हुक्म देते और बाकी उसको नज़रअंदाज़ करके सीधे अफसरों के क्लब का रुख करते। और थियो मैटकाफ अपने मजिस्ट्रेट कोर्ट से छुट्टी पाकर मैटकाफ हाउस के उत्तर में दरिया किनारे घुड़सवारी करता और उसके कुत्तों की टोली उसके साथ साथ दौड़ रही होती। वह उस वक्त यह ख्वाब देख रहा होता कि किस तरह वह स्किनर के कुत्तों को हराकर उत्तरी भारत के कुत्तों के क्लब का सालाना मुकाबले में पहला इनाम जीत सकता है। इस क्लब के सदर थियो के पिता थे।
क्लब का यह सालाना बेहतरीन कुत्ते का मुकाबला जो जाड़ों में होता था, पूरी ब्रिटिश सोसाइटी में इतना अहम था कि अक्सर दिल्ली गुज़ट अख़बार का एक पूरा अंक उसके बारे में ही निकालता था।” सर थॉमस उस वक्त अपने दरिया के रुख वाले बरामदे में बैठा होता और जल्दी से शाम का खाना खाकर आराम करने का इंतज़ार कर रहा होता। यह बरामदा उसकी ख़ास पसंदीदा जगह थी। वहां तीन-चार कुर्सियां मेहमानों के लिए भी पड़ी होतीं। वह वहां कुछ वक्त गुज़ारता जब तक उसके डिनर के लिए तैयार होने का वक्त होता था। उसके दोस्त अक्सर उससे मिलने उस वक़्त आ जाते और गपशप करते।
जैसे-जैसे सूर्यास्त का वक्त आता मंदिर, मस्जिद और चर्च एक बार फिर लोगों से भर जाते। मंदिरों में पूजा के लिए घंटियां बजने लगतीं और मस्जिदों से अजान की सदा गूंजती। और फिर यह सब आवाज़ें पादरी जेनिंग्स के सेंट जेम्स चर्च के पियानो और प्रशंसा के गीतों के संगीत से मिलकर एक अजीब समां पैदा कर देतीं। इसमें अंग्रेज़ों की उन बग्घियों की आवाज़ भी शामिल हो जाती जो कश्मीरी गेट की भीड़ से निकलकर सिविल लाइंस जा रही होतीं। कश्मीरी गेट की दो मेहराबों से निकलते हुए रास्ते में से एक को ईंटों से बंद कर दिया गया था, जिसकी वजह से वहां भीड़ हो जाती और ‘दिल्ली गज़ट’ में अक्सर उसकी शिकायत की जाती।
जैसे-जैसे रात का अंधेरा बढ़ता जाता, लाल किले में मशालबरदारों का एक जुलूस ढोल, नक्कारे, बिगुल और शहनाई बजाने वालों के दस्तों के साथ किले की शर्मे रौशन करने में लग जाता। बाहर शहर की सड़कें दिल्ली कॉलेज और मदरसों के छात्रों से भर जातीं जो दिन भर की पढ़ाई और मेहनत से थके-पाद, हल्के अंधेरे में घर वापस जा रहे होते।” लेकिन यह मदरसे और कॉलेज के छात्र बहुत कम एक दूसरे से मिलते थे। हाली बहुत साल बाद अपनी यादगार में लिखते हैं:
दिल्ली कॉलेज उस वक्त पूरे चरम पर था। मैंने ऐसे माहौल में परवरिश पाई थी जहां शिक्षा सिर्फ अरबी और फ़ारसी के ज्ञान पर आधारित समझी जाती थी। कोई अंग्रेज़ी शिक्षा के बारे में सोचता भी नहीं था और अगर लोगों की इसके बारे में कोई राय थी भी तो वह उसको सिर्फ सरकारी नौकरी हासिल करने का ज़रिया समझते थे, बजाय किसी तरह का ज्ञान प्राप्त करने के। हमारे धार्मिक उस्ताद अंग्रेज़ी स्कूलों को तो बर्बर कहते थे।
अंग्रेज़ों के लिए सूर्यास्त दिन के अंत की निशानी थी। अब वह एक और बड़े से खाने के इंतज़ार में होते जिसमें बड़ी तादाद में किस्म-किस्म की चीजें होतीं । दाल का सूप, ख़ूब मोटा-ताज़ा भुना हुआ शुतुरमुर्ग, सूअर के मांस के टुकड़े, और मेज़ के एक सिरे पर बीफ का बड़ा सा रोस्ट और दूसरे सिरे पर मटन रान और पुट्टे का मांस हड्डी समेत। एक प्लेट में तीन तीन परिंदे, बत्तख, भुनी ज़बान, कबूतर की अंग्रेज़ी ढंग से बनी पाई, मटन चॉप और मुर्गी के कटलेट्स। इसके अलावा भुनी हुई हड्डियां और तरह-तरह के उन परिंदों के और सालन जिनका दिन में शिकार किया गया हो। इतने शानदार स्ट्यू खाने के बाद उनके लिए कुछ करने को नहीं होता था। एक फ्रांसीसी सैलानी विक्टर हाकिमोंट दिल्ली की ब्रिटिश सोसाइटी की खाने के बाद की महफिलें देखकर बिल्कुल खुश नहीं हुआ; “मैंने दिल्ली की पार्टियों में किसी के चेहरे पर ज़रा सा भी खुशी का भाव नहीं देखा। जिन चीज़ों से पेरिस की महफ़िलों में जान पड़ती है उनमें से एक भी दिल्ली की अंग्रेज़ सोसाइटी में नज़र नहीं आती।