दिल्ली में साल के सात महीने गर्मी की वजह से तीन घंटे के लिए सारी सड़कें खाली हो जातीं। जैसे एक झुलसती सफ़ेद आधी रात हर गली और कूचे को ढक दे। हर तरफ ख़ामोशी छा जाती। छावनी में नौजवान सिपाही अपने बिस्तरों पर करवटें बदलते रहते और पंखे वालों से और ज़ोर से हाथ चलाने की आवाजें लगाते।

शहर के ऊंची छत वाली हवेलियों के सहन की छांव में जिंदगी बदस्तूर जारी रहती। खस के पर्दे दालानों की मेहराब में गिरा दिए जाते और उन पर इत्र का पानी छिड़क दिया जाता। बारादरी के सामने खूबसूरत शामियाने खड़े कर दिए जाते। जिन लोगों के घर में तहखाने होते वह उसमें चले जाते और अपने रोज़मर्रा के काम करते रहते, जैसे सिलाई, ख़त लिखना या छोटे बच्चों को पढ़ाना या शतरंज, ताश या पच्चीसी खेलना। एक अंग्रेज मेहमान एक हवेली के तहखाने ले जाया गया, और वह वहां का आराम देखकर दंग रह गया।

उसका कहना है:

“तहखाने का तापमान ऊपर के कमरों से कम से कम दस डिग्री कम होता है। इसमें जाने के लिए तीस फुट नीचे उतरना होता है लेकिन वहां पहुंचकर जो ताज्जुब और खुशी होती है उसका बयान करना मुश्किल है। खूबसूरत कमरे, बहुत नफासत से सजे हुए, बिल्कुल संगमरमर के रंग के, जिनको देखकर निगाहें धोखा खा जाएं। और फिर वह ठंडक जो ऊपर की दमघोंटू गर्मी के बाद बहुत राहत देती है।

लंबे-लंबे बरामदे, अलग-अलग कमरों की तरफ जाते हुए, रंगीन दीवारों और खूबसूरत फर्नीचर से सजे हुए। दीवारों पर दिल्ली और उसके आसपास की खूबसूरत पेंसिल से बनाई तस्वीरें बिल्कुल ऐसा लगता था गोया परिस्तान में आ गए। अप्रैल, मई और जून की गर्मी से पनाह की यह जगह ऐसा ऐश है कि बयान नहीं किया जा सकता। खासकर जब ऊपर का तापमान पिचासी से कम नहीं होता और कभी-कभी तो नब्बे तक पहुंच सकता है।

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