1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर के बहुत से बेटों का क्रांति से कोई जुडाव नहीं था। ऐसे शहजादों की संख्या भी ठीक ठाक थी, जो जंग में शामिल नहीं हुए। इनका गुनाह बस इतना था कि वो मुगल नस्ल के थे और शाही घराने में पैदा हुए थे।

अंग्रेज हुकूमत के उस जमाने के रिकॉर्डों से जो अब तक दिल्ली के कमिश्नर के दफ्तर में सुरक्षित हैं, पता चलता है कि इस बारे में ब्रिटिश नीति बिल्कुल अनिश्चित और आश्चर्यजनक रूप से उलझी हुई थी। कुछ शाहजादों को फांसी दे दी गई, कुछ को अंडमान द्वीप (काला पानी) में नए साम्राज्यवादी बेहद गर्म और आर्द्र कैदी कैंप भेज दिया गया। और कुछ को हिंदुस्तान ही में देशनिकाला दे दिया गया।

ज्यादातर को आगरा, कानपुर और इलाहाबाद की जेलों में भेज दिया गया, जहां कैद की सख़्तियों उठाने के कारण ज़्यादातर की दो साल के अंदर ही मृत्यु हो गई। इनमें ‘एक अपाहिज, एक बारह साल का लड़का और एक बहुत बूढ़ा आदमी’ शामिल था। 

जॉन लॉरेंस के आदेश पर उन तमाम मामलों की तहकीकात सॉन्डर्स ने अप्रैल 1859 में की। दिल्ली के कमिश्नर को मानना पड़ा कि सारे कैदी शहजादों और सलातीन के बारे में छानबीन करने पर मालूम हुआ कि ‘उनमें से किसी का भी कोई कुसूर नहीं था और किसी के बारे में भी जानबूझकर बगावत में हिस्सा लेने का कोई सुबूत नहीं था’ । उसने कहा किः “उनमें से कोई कैदी भी किसी बड़े जुर्म का जिम्मेदार नहीं पाया गया सिवाय इसके

कि वह बादशाह के खानदान से था। बहुत से लोगों की नजरों में यही गुनाह काफी था और इसकी कड़ी सजा होनी चाहिए थी क्योंकि पूरा तैमूरी खानदान इसलिए बदनाम था कि उनको (जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी) अपनी नस्ल के संभावित पुनरुत्थान की बहुत खुशी थी और इसलिए उन्होंने बगावत में और उन सारे भयानक कृत्यों में भाग लिया जो महल में हुई थीं। “फिर भी जो बदला शाही खानदान से लिया गया वह बहुत सख्त और नाइंसाफी भरा था।

और जिन शहजादों के केस कमीशन के सामने आए, उनमें मृत्यु दर बहुत ज़्यादा रही है (साथ में पंद्रह शहजादों की सूची थी, जो पिछले अठारह महीनों में मरे थे)। इसलिए मैं आपको सलाह दूंगा कि बाकी बचे हुए कैदियों को दिल्ली से दूर रंगून भेज दिया जाए, जहां वह स्थानीय प्रभाव नहीं प्राप्त कर सकेंगे, या फिर बनारस जो एक हिंदू शहर है, या फिर अगर आप समझते हैं कि उनको पंजाब की हुकूमत के सुपुर्द करना उनके लिए बेहतर है, तो मुल्तान भेज दिया जाए। और तब दंड प्रशासन की पूर्ण अराजकता का हाल स्पष्ट हुआ, जबकि उसे बगावत के बाद के कैदियों की इतनी बड़ी तादाद का मामला संभालना था।

कई जेलों से सॉन्डर्स के पास खत आए जिनमें उन्होंने उन कैदियों की मौजूदगी से ही इंकार कर दिया जो उनको भेजे गए थे। पता चला कि जिन कैदियों को बर्मा भेजने का आदेश दिया गया था उन्हें वहां के बजाय कराची या अंडमान भेज दिया गया था। दो साल में मरने वालों की तादाद उससे कहीं ज़्यादा निकली, जितना पहले अंदाज़ा किया गया था।

बदनसीब बदकिस्मत सलातीन का एक ग्रुप जिनके बारे में समझा जाता था कि वह आगरा में कैद हैं, उन्हें फिर कानपुर में ढूंढ़ा गया और आखिरकार वह इलाहाबाद की जेल में पाए गए, लेकिन हाल ही में उन्हें अंडमान पहुंचाने के लिए कलकत्ता भेज दिया गया था।

जब वह जहाज पर चढ़ने ही वाले थे, तो उनको हिंदुस्तान के दूसरे सिरे पर कराची भेज दिया गया। आखिर में, बचे-खुचे लोगों जिनमें से बहुत से गिरफ्तार नहीं हुए थे और अमन से दिल्ली में रह रहे थे–को बांटकर उनमें से कुछ को कराची भिजवा दिया गया, और ज़्यादातर सलातीन मर्दों को बर्मा के मौलामेन शहर भेज दिया गया।

दिल्ली में रहने की किसी को इजाज़त नहीं दी गई, चाहे उन्होंने कितने ही सुबूत पेश किए हों कि वह पूरी तरह बेगुनाह हैं, हालांकि कहा जाता है कि बाद में पांच मुगल शहजादे भागकर और अपना हुलिया बदलकर छिपते-छिपाते मुगल राजधानी में वापस आ गए।

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