बाकर क्यों चाहते थे अंग्रेज दोबारा शहर पर कर लें कब्जा

1857 की क्रांति: अंग्रेजों से ताल्लुक कायम रखना और उनके साथ सुलह का रास्ता तलाश करना मुश्किल नहीं था। बहादुर शाह जफर की बीबी और वजीरे-आजम दोनों रिज पर जमे अंग्रेजों से होडसन के जासूसों के नेता मौलवी रजब अली के जरिए संपर्क में थे। बाकर ने भी यही रास्ता अपनाया और उनसे कहा गया कि वह एक अखबार निकालें और ब्रिटिश कैंप में गुप्तचर विभाग के जरिए भिजवा दें। बाकर की पहली रिपोर्ट जिसका अनुवाद उसी वक़्त रिज पर किया गया था, अब भी दिल्ली के कमिश्नर के दफ्तर में पाई जाती है और इससे पता चलता है कि क्यों एक ऐसा खुला और जोशीला बागी तीन महीनों के अंदर-अंदर इतना निराश हो गया था। वह लिखते हैं:

“हिंदुओं और मुसलमानों में बहुत तनाव पैदा हो गया है। हम लोग जो दिल्ली के रहने वाले शरीफ शहरी हैं, सिपाहियों के जुल्म से सब्र की आखरी हद तक पहुंच चुके हैं। और हमें अपनी जान बचाने की भी कोई उम्मीद नहीं है। में जहां भी जाता हूं जनरल बख्त खां के जासूस मेरा पीछा करते हैं। मुफ्ती सदुद्दीन आजुर्दा के घर पर पहरा है और किसी का भी आना-जाना मना है। जीनत महल के जरिए मैंने बादशाह से दर्खास्त की कि शहर के दरवाजे खोलकर अंग्रेजों को दावत दें कि वह आकर शहर पर कब्जा कर लें। मैंने यह भी कहा कि अगर वह क्रांतिकारियों  को खत्म कर देंगे तो उनको और उनके बच्चों को बहुत फायदा होगा। बादशाह सलामत ने मेरे मशवरे को स्वीकार किया और ऐसा करने का वादा किया।

लेकिन सुलेह की इन देर से की गई कोशिशों से दोनों में से किसी को फायदा नहीं होने वाला था। रिज से जनरल विल्सन और लाहौर से लॉरेंस ने कलकत्ता से दर्खास्त की कि जफर की पेशकश पर गौर करना चाहिए। लेकिन कैनिंग अड़ा हुआ था कि किसी तरह की और कोई बातचीत नहीं होगी और जफर को यह सोचने की इजाजत भी नहीं देनी चाहिए कि बगावत के कुचले जाने के बाद वह अपने अल्काब या पद कायम रख सकेंगे। इसलिए मुगल दरबार अजीब कशमकश में था, न तो इस बगावत से पीछा छुड़ा सकता था, जिससे इसकी दूरी लगातार बढ़ती जा रही थी और जिसकी हार यकीनी दिखाई दे रही थी। इस बीच होडसन ने मुहम्मद बाकर को अपना जासूस नियुक्त कर दिया था लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं थी कि जब शहर पर कब्जा होगा तो अपने लोगों से गद्दारी करने की वजह से उनकी जान बख्श दी जाएगी।

जुलाई के आखिर तक साफ जाहिर था कि फौजी संतुलन अपरिवर्तनीय रूप से अंग्रेजों की तरफ झुक रहा है। हालांकि अब भी रिज पर जमा सिपाही संख्या में क्रांतिकारियों  से बहुत कम थे लेकिन उन पर हमलों की तादाद रोज-बरोज घट रही थी और कमज़ोर पड़ रही थी, और बागी अफसरों के मतभेद बढ़ते जा रहे थे। ग्रेटहैड ने 29 जुलाई को एक ख़त में अपनी बीवी को लिखा ‘अब लहरों का रुख बदल रहा है और मौजें भी कम तेजी से हमारी हिफाजती चट्टानों से टकरा रही हैं।

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