आखिर क्यों आ गई दिल्ली में भूखों मरने की नौबत!

1857 की क्रांति:  अंग्रेजों ने दिल्ली को घेर लिया था। दिल्ली में राशन आपूर्ति व्यवस्था प्रभावित होने लगी थी। दिल्ली के अंदर बसे सिपाहियों और लोगों को कई तरह के और अंदेशे उपजने लगे। अंग्रेजों का ख्याल है कि सैनिक हालात के बजाय बाकी साजो-सामान की वजह से क्रांतिकारियों  का हाल अब इतना खराब है कि वह कहीं शहर छोड़कर भाग ही न जाएं।

“उनके पास न तो पैसा है न जंग का सामान और न ही खाना। विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि वाइबर्ट के पास शाहजादों के खत आना शुरू हो गए थे। जिसमें उन्होंने लिखा था कि उनकी हमदर्दी हमेशा अंग्रेजों के साथ थी और अब वह जानना चाहते हैं कि वह हमारे लिए क्या कर सकते हैं। हालांकि वाइबर्ट ने पत्रों का कभी जवाब नहीं दिया। वो कहता था कि यह तो उनको खुद ही मालूम हो जाएगा क्योंकि मैं तो उन्हें नहीं बताऊंगा और न ही जवाब दूंगा।

जहां उधर रिज पर जमे सिपाहियों को कम फिकें और ज्यादा खाना मिल रहा था, वहीं इधर उनके दिल्ली के समकक्ष रोज-बरोज भूखों मरने के करीब होते जा रहे थे।

बागी सिपाहियों की सैनिक और रणनीतिक योग्यता तो काफी दिनों से जाहिर थी, खासकर उनकी गुप्तचरी की अयोग्यता या जैसे कानपुर और लखनऊ जैसे दूसरे बागी गुटों से संपर्क रखने या उनके साथ मिलकर लड़ने की अक्षमता, या राजपूताना और मध्य भारत के स्वतंत्र राजाओं को इस बात के लिए मनाने की योग्यता कि वह अपना ढुलमुल रवैया छोड़कर उनके साथ मिलकर उनके मकसद के लिए लड़ाई करें।

खासतौर से अफसोस की बात यह थी कि दिल्ली के बागी इस बात से अब तक अनजान थे कि वह रिज के पीछे से हमला करके अंग्रेजों को आसानी से हरा सकते थे। निकल्सन ने 28 अगस्त को लिखा, “विल्सन को इस बारे में बहुत फिक्र थी। अगर दुश्मनों में इतनी समझ होती कि वह एक मजबूत दस्ता पीछे से भेज देते, तो हम उनके खिलाफ पांच-छह सौ से ज़्यादा सिपाही नहीं भेज पाते। लेकिन अब यह खेल आजमाने के लिए बहुत देर हो चुकी है, और अब वह परेशान हैं कि क्या नया मंसूबा बनाएं।

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