1857 की क्रांति: जुलाई के शुरूआत में थियो मैटकाफ का बहनोई एडवर्ड कैंपबैल रिज पर आया और बाड़ा हिंदूराव के पास उसकी नियुक्ति हो गई। उस वक्त क्रांतिकारियों की तरफ से जोरदार हमला हो रहा था। कैंप के और लोगों की तरह वह भी यह देखकर परेशान हो गया कि अंग्रेजों का पड़ाव कितनी खतरनाक जगह पर था। अगले दिन उसने अपनी कलम उठाई और शिमला में अपनी गर्भवती बीवी जीजी को खत लिखना शुरू किया। आखरी बार वह पांच साल पहले दिल्ली में था-क्रिसमस के जमाने में। इसी रिज के दूसरे छोर पर मैटकाफ हाउस में सर थॉमस की नापसंदगी के बावजूद उसका जीजी से रोमांस चल रहा था।
खत के शुरू में खानदान के बारे में जिक्र था। जीजी ने उससे सब कुछ तफ्सील से लिखने की फरमाइश की थी और पूछा था कि उनके दोनों घरों की अब क्या हालत है: ‘क्या तुम पुराने घरों के खंडहरों की तरफ गए? क्या कुतबखाना भी बर्बाद हो गया?* जवाब में कैंपबैल ने लिखा कि थियो को होडसन्स हॉर्स के साथ उसी वक्त बाहर भेजा गया था, जब वह यहां पहुंचा था, और अभी तक उसकी उससे तफ्सीली बातचीत नहीं हो पायी थी। और उस वक्त थियो ब्रिटिश पड़ाव के पीछे कुछ गांववालों के हथियार जब्त करने गया हुआ था। थियो की आंखें सूज गई थीं और उनमें दर्द भी था।
कैंपबैल ने जीजी को यह भी लिखा कि उसकी राय में थियो को कुछ दिन की छुट्टी लेकर अपने दिल्ली से फरार होने के हादसे से पूरी तरह उबरने के लिए शिमला जाकर आराम करना चाहिए। इस तरह वह अपनी गर्भवती बहन की मदद भी कर पाएगा। “मुझे नहीं लगता उसके यहां रहने का कोई फायदा है, सिवाय इसके कि वह शहर के बारे में काफी मालूमात दे सकता है, जिसकी किसी को कोई खास परवाह नहीं है।” वह लिखता है कि मैटकाफ हाउस पूरी तरह जल चुका है और इसका खंडहर अब पूर्व में अंग्रेजी फौज का ठिकाना है, यमुना के किनारे की सरहद पर। उसकी तबाही देखकर अंदाजा होता था जैसे उसको लूटने वालों ने “हर कमरे में आग लगाई होगी। सिर्फ एक छत बची है, जो थियो के पुराने कमरों की है। लेकिन दिलकुशा बेहतर हाल में है। हमने कुछ लोगों को कुतुबखाना देखने भेजा था और उनका कहना था कि वह ठीक हालत में है और लूटा नहीं गया है, और सब नौकर भी वहां मौजूद हैं। अजीब बात है ना?”
एडवर्ड जानता था कि जीजी के लिए यह बहुत अहम होगा। खानदान के बाकी लोगों की तरह वह भी अपने अजीज खानदानी घर के नुक्सान से बहुत दुखी थी और इसके अलावा आर्थिक रूप से उन पर बहुत बुरा असर पड़ा था क्योंकि दिल्ली के कई और अंग्रेज़ खानदानों की तरह उन्होंने भी अपना सब कुछ 11 मई को खो दिया था। बगावत से पहले थियो को सारे खानदान ने बहुत बुरा-भला कहा था कि वह अपने पिता की किताबों और तस्वीरों वगैरा की नीलामी में बहुत देर लगा रहा है, 52 लेकिन हालात से पता चला कि उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो कुछ नीलाम हो चुका था, उसकी रकम भी दिल्ली बैंक में रख दी गई थी, जिसका सब माल और किताबें मैटकाफ हाउस के जलने से पहले ही आग की नज़र हो गई थीं। कम से कम अब यह तो उम्मीद थी कि उसके पिता का कुछ सामान उनके महरौली के पास वाले घर में बच गया होगा।
यह खुशखबरी सुनाने के बाद कैंपबैल ने जीजी को ब्रिटिश फौज के रिज पर पड़ाव के तारीक हालात से आगाह किया। “शाम को आठ बजे पांडियों ने बाड़ा हिंदूराव के सामने वाले मोरचों पर ज़ोरदार हमला किया। हमारे लिए सबसे खतरनाक उनके तोप के गोले और बंदूक की गोलियां थीं। इतनी जबरदस्त निशानेबाजी मैंने कभी नहीं देखी।
“अगले सारे दिन मुझे चौकन्ना रहकर बंदूक तैयार रखनी पड़ीं कि कहीं वागी सिपाही हमारी बायीं तरफ से हमला न कर दें, जहां हम बहुत कमज़ोर थे। मेरे लिए यह बहुत परेशानी का वक्त था क्योंकि मुझे अंदाजा था कि हालात कितने खतरनाक हैं। हमारे राइफल वालों की तादाद बहुत कम है। मेरे पास 70 के बजाय सिर्फ 30 आदमी ऐसे हैं जो ड्यूटी करने के काबिल हैं। मेरे चार आदमी जख्मी हो गए लेकिन शुक्र है कोई मरा नहीं। मुझे अपने लिए भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए क्योंकि मैं भी कई बार मरते-मरते बचा। हमारे बिल्कुल सामने क्रांतिकारियों की सीधी निशानाबाजी हो रही थी और बहुत सी गोलियां हमारे सिर के ऊपर से गुजरकर हर तरफ पत्थरों में जाकर लग रही थीं। मेरे एक सार्जेंट के बाजू में गोली लगी। एक और के हाथ में, और एक तीसरे का गला जख्मी हुआ। मेरे मातहत मॉर्गन की टांग में एक छूट चुकी गोली लग गई, एक आदमी की टोपी उड़ गई, एक के थैले में गोली लगी और एक और की टांग जख्मी हुई।”
जैसे मौलवी मुहम्मद बाकर ने अपने पढ़ने वालों से दावा किया था कि खुदाई मदद यकीनन उनके साथ है, उसी तरह कैंपबैल ने अब जीजी को यकीन दिलाया कि ईश्वर अंग्रेजों की तरफ है और वह “मेरी प्यारी बीवी को सुकून देगा, क्योंकि सिर्फ उसी की मदद असली शांति है, जो इंसान को हर इम्तेहान से गुज़ार सकती है। तुमने इतनी अच्छी तरह अकेले सब जिम्मेदारी उठाई है और अब तुमको दिल्ली की हालत पर कोई ज़्यादा गम या डर नहीं करना चाहिए। मैंने हमेशा तुमसे कहा था कि यह लड़ाई काफी दिन चलेगी। और जब मैं किले की कुदरती और जाहिरी सुरक्षा व्यवस्था देखता हूं, तो मुझे लगता है कि हम उसे आसानी से फतह नहीं कर सकते और ना ही बाकी मुल्क को, जब तक कि हम काफी तादाद में फौज इकट्ठा नहीं करेंगे। एक लंबी घेराबंदी और तोपों के लिए बहुत सा बारूद। जब तक यह नहीं होगा तब तक हमला करना फिजूल होगा।
“मुझे भरोसा है कि खुदा का साया हमारे सिर पर है। और वह मुझे हमेशा अपना फर्ज ईमानदारी और बहादुरी से पूरा करने की शक्ति देगा। मुझे यहां के दूसरे सैनिकों की तरह मरे हुए क्रांतिकारियों की तादाद देखकर कोई खुशी नहीं होती है। वह भी ईश्वर के बनाए इंसान हैं और यह सब कत्ले-आम हमारे हिसाब में लिखा जाएगा। बस खुदा से यही दुआ करो कि हमारे सिर हमेशा विनम्रता से उसके सामने झुके रहें।
कैंपबैल की तरह रिज पर जमा दूसरे अंग्रेजों को भी यही अंदेशे थे। उन्हें हर रोज यह स्पष्ट होता जा रहा था कि वह यहां घेराबंदी करने आए थे लेकिन इस वक़्त उनके पास सिपाहियों की कोई ऐसी तादाद नहीं थी कि वह शहर को घेर सकें या उस पर हमला कर सकें। अब उनके पास इसके सिवाय और कोई चारा नहीं था कि वह मदद आने तक वहां जमे रहें और जो कुछ भी नुक्सान बागी उनको पहुंचाएं उसको बर्दाश्त करें। उस वक़्त उनके पास 4,000 सरकारी सिपाही थे, जबकि क्रांतिकारियों के पास लगभग 20,000 थे और उनकी तादाद रोज-बरोज बढ़ती जा रही थी। जनरल विल्सन ने अपनी बीवी को लिखा, “हम अब तक इसी अनिश्चितता की स्थिति में हैं कि अब जो हम यहां आ गए हैं तो हमको क्या करना है। मैं तो नहीं समझता कि इस तरह हम दिल्ली को फतह कर सकते हैं। सिवाय खुदा की कृपा और मदद के मुझे कोई और सूरत नज़र नहीं आती। मुझे उम्मीद है कि वह अपने लोगों का साथ नहीं छोड़ेगा। अगर शहर में इन अनिश्चित हालात की वजह से बेचैनी थी, तो रिज पर उससे भी बुरा हाल था। फ्रेड रॉबर्ट्स ने लिखा कि “हम बेमक्सद इधर से उधर आ-जा रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं कि हम और कुछ नहीं कर सकते। यह दिल्ली में पड़े रहना बहुत हताशापूर्ण है। अगर हम एक अच्छी लड़ाई लड़कर फैसला कर सकते तो बहुत बेहतर होता। लेकिन यह पांडी तो अनगिनत हैं और कभी खत्म ही नहीं होते।