दिल्ली शहर के बाहर बदतर थे हालात

1857 की क्रांति: शहर के अंदर दिल्लीवालों के विपरीत अंग्रेजों के पास खाने-पीने की चीजों की कोई कमी नहीं थी, जो अम्बाला से ग्रांड ट्रंक रोड के जरिए हथियारबंद सिपाहियों के दस्तों के साथ उनके लिए मुहैया की जा रही थीं। लेकिन बाकी तरह से उनकी हालत दिल्ली वालों से बदतर थी। न सिर्फ उन पर शहर से निरंतर बमबारी और रोजाना हमले होते थे, बल्कि उन फील्ड फोर्स के सिपाहियों के पास सिर छुपाने के लिए सिवाय खेमों के न कोई साया था न पनाह।

बहुत से सिपाही तो ‘लू लगने से या मिर्गी से मर गए। उनके चेहरे मिनटों में स्याह हो जाते, जो एक बहुत भयानक दृश्य होता था। उनके लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी सिवाय एक मील दूर यमुना की नहर के जिसका पानी न सिर्फ बदबूदार था, बल्कि इतना गाढ़ा था जैसे मटर का सूप।’ जल-निकास प्रणाली बहुत असंतोषजनक थी। एक-दो हफ्तों बाद पहाड़ी की ढलान पर पड़ी सड़ रही सिपाहियों की फूली, काली होती लाशों से बेहद असहनीय बदबू आने लगी।

चट्टान के पत्थर इतने सख्त थे कि वहां उथली कब्रें खोदना तक मुश्किल था। एक सिपाही ने अपनी मां को खत में लिखा, “परसों मुझे बदतरीन हालात का सामना करना पड़ा। मुझसे दस गज पर करीब पंद्रह लाशें पड़ी सड़ रही थीं। उनकी बदबू असहनीय थी लेकिन हमको 38 घंटे उसको झेलना पड़ा।” पंजाब से जो छोटी-छोटी फौज की टुकड़ियां अंग्रेजों की मदद को आती थीं उनको शहर के करीब पहुंचते हुए पहले बदबू का सामना करना पड़ता जिससे उनको पता चल जाता कि शहर करीब है।

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