चाय की प्याली में भरी रहती थी मक्खियां

1857 की क्रांति: विद्रोह अब निर्णायक होता जा रहा था। रिज पर अंग्रेजी सैनिक जमे थे लेकिन हालात बहुत खराब थे। कर्नल जॉर्ज बूर्शियर ने लिखा कि “हमें अपनी नाक के जरिए पहले ही यह तकलीफदेह अंदाज़ा हो गया था कि अब हमें क्या देखना पड़ेगा। अलीपुर से लेकर कैंप तक हर तरफ मौत हमें हर शक्ल में दिखाई दी।

यहां तक कि वह पेड़ भी जिन्हें ऊंटों की खुराक के लिए काटा गया था बेहद उजाड़ से लगते थे। जैसे वह अपनी खुश्क टहनियां आसमान की तरफ बुलंद करके अपने लिए रहम और अपने तबाह करने वालों के लिए सजा की दुआ मांग रहे हों। इतना ही नहीं मक्खियों की समस्या ऐसी थी, जिसे कभी भूला नहीं जा सकता।

पादरी रॉटन लिखता है, “वह हमको खेमे में, खाते वक्त  और काम करते वक्त हर जगह ढूंढ़ लेतीं। जो भी खाना सामने आता और जैसे ही उसका ढक्कन उठाया जाता, मक्खियों का एक छत्ता उस पर बैठ जाता। यहां तक कि अगर क्षण भर को भी ध्यान हट जाए तो चाय की प्याली भी मक्खियों से भर जाती। और इसको देखकर बहुत घिन आती। क्योंकि उसके ऊपर की सतह विल्कुल काली हो जाती। कुछ मरी हुई मक्खियों के तैरने और कुछ मरती हुई मक्खियों के फड़फड़ाने से।”

मक्खियों की गंदगी ने एक नौजवान लेफ्टिनेंट चार्ल्स ग्रिफिथ्स को इतना परेशान किया कि रॉटन की तरह उसको भी उनसे सख्त नफरत हो गई। उसका कहना था कि कई बार उसकी आंख विगुल के बजने या गोलियों की आवाज से नहीं बल्कि मक्खियों के उसके सोते हुए होंठों पर रेंगने से खुलती थीः

“वह आसमान को काला कर देती थीं। जब उनका जमघट आसमान से उतरता तो वह हमारे इर्द-गिर्द हर चीज़ पर बैठ जातीं। हम जानते थे कि उनका वजूद इंसानों और जानवरों की सड़ती लाशों की वजह से था, जो हर तरफ बेदफन पड़ी गल-सड़ रही थीं। गर्मी गजब की थी और हवा में महामारी फैली थी। इसलिए कोई ताज्जुब की बात नहीं थी कि हमारे कैंप में रोज नई-नई बीमारियां फैल रही थीं और हर रेजिमेंट से रोज अंग्रेज़ या हिंदुस्तानियों में से कोई न कोई उनका शिकार हो जाता। “”

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