गलियां सुनसान थी, हर तरफ तबाही का मंजर था
1857 की क्रांति: 21 सितंबर की सुबह को ‘सूरज निकलने के समय एक शाही विगुल के साथ ही स्पष्ट कर दिया गया कि दिल्ली फिर से ब्रिटिश ताज का भाग बन गई है’। लेकिन यह कब्ज़ा की हुई दिल्ली-हिंदुस्तान की प्राचीन राजधानी, मुगलों का अजीमुश्शान शहर-अब सिर्फ मुर्दों का एक बर्बाद शहर था, सिवाय शराबी ब्रिटिश लुटेरों के राग-रंग के। मेजर विलियम आयरलैंड, जो अपने साथियों के जुल्मो-सितम का निरंतर आलोचक था, इस ‘मुक्त’ शहर को देखकर आतंकित था।
उसने लिखा कि इस आलीशान शहर की वीरानी जंग की तबाही की दास्तान सुनाती है। सिवाय उन घरों के आसपास जिनमें सिपाही रह रहे थे, बाकी सब जगहें खाली और सुनसान थीं। न बाजारों में सौदागर थे, न शहर के दरवाजों से ऊंटों या बैलगाड़ियों के काफिले गुजर रहे थे, न सड़कों पर राहगीर थे, न घरों के दरवाज़ों पर आदमी खड़े बातें कर रहे थे, न धूल-मिट्टी में बच्चे खेल रहे थे, और न पदों के पीछे से औरतों की आवाजें आ रही थीं। और घरों का तरह-तरह का फर्नीचर सड़कों पर बेतरतीबी से पड़ा था।
“यह सारा दृश्य उन घरों में हाल ही में रहने वालों के बचे-खुचे निशां से और भी ज़्यादा सूना हो रहा था। आतिशदानों में राख अभी तक काली थी, और पालतू जानवर चारों तरफ अपने मालिकों की तलाश में घूम रहे थे। हर तरफ जले हुए या तोप के गोलों से जले घर दिखाई देते थे, और गोलियों के खोल बिखरे हुए थे।
व्यापारी आखिर तक अपनी दुकानों में बैठे रहे थे लेकिन आखिरकार बमबारी और हमारे सिपाहियों के करतूतों की खबरों ने उन्हें भी भागने पर मजबूर कर दिया था।
दिल्ली के डेढ़ लाख शहरियों में लगभग सब जा चुके हैं। ऐसा बुरा हाल तो तब भी नहीं हुआ था, जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया था। और यह सच है कि 1739 में नादिरशाह का मशहूर कत्ले-आम भी बस कुछ घंटे ही जारी रहा था। कहा जाता है कि जब एक हिंदुस्तानी ने उसके सामने इस शेर से दर्खास्त पेश की तो उसने कत्ले-आम रोक दिया थाः
अब कोई नहीं बचा है तेरी सितमगर तलवार के लिए
सिवाय इसके कि उनको फिर से जिंदा करे और मार डाले