1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर को अंग्रेज अफसर होडसन ने कैद कर लिया। जफर को पहले लाल किले एवं फिर हुमायूं के मकबरे में कैद रखा गया। बाद में यहां से भी जफर व उसके परिवार के लोगों को शिफ्ट कर दिया गया। अंग्रेज सैनिक ना केवल जफर बल्कि उसके परिवार के सदस्यों से बदतमीजी करते थे।

विलियम डेलरिंपल ने अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखा है कि इस दौरान सिर्फ एक शख्स था, जिसने जफर से बेहतर बर्ताव करने के लिए खुलकर अपनी आवाज उठाई। एल्सबरी का भूतपूर्व संसद सदस्य हेनरी लेयर्ड जफर से मिलने आया और जो उसने वहां देखा उसे देखकर वह बिल्कुल दंग रह गया।

उसने लंदन में एक सभा में कहाः

“बहुत से लोगों का कहना है कि दिल्ली के बादशाह को अपने अपराध की पर्याप्त सजा नहीं मिली है। मैंने दिल्ली के बादशाह को अपनी आंखों से देखा और मेरी बात सुन लेने के बाद में यह फैसला आप लोगों पर छोडूंगा कि उन्हें सजा मिली या नहीं। मैं इस बारे में कोई राय नहीं दूंगा कि हम उनके साथ जैसा बर्ताव कर रहे हैं, वह किसी महान राष्ट्र को शोभा देता है या नहीं। मैंने उस खस्ताहाल बूढ़े इंसान को देखा, एक कमरे में नहीं बल्कि अपने महल की एक घटिया सी कोठरी में वह एक खुरदुरे पलंग पर पड़े थे, जहां सिवाय एक फटी रजाई के उनके पास ओढ़ने को भी कुछ नहीं था।

जब मैं उन्हें देख रहा था, तो उनके दिमाग में अपनी पहली शानो-शौकत की यादें उभर आईं। वह बड़ी मुश्किल से पलंग से उठे और मुझे अपने बाजू दिखाए, जिन पर बीमारी और मक्खियों की वजह से जख्म पड़े हुए थे-आंशिक रूप से पानी की कमी की वजह से। उन्होंने बड़े दयनीय लहजे में कहा कि उनके पास खाने को भी पर्याप्त नहीं है।

क्या यही तरीका है जो ईसाई होने के नाते, हमें एक बादशाह से बरतना चाहिए? मैंने उनके हरम की औरतों को भी देखा, जो अपने बच्चों के साथ एक कोने में दुबकी हुई थीं। और मुझे बताया गया कि उनके गुजारे के लिए सिर्फ सोलह शिलिंग रोजाना मिलते हैं। क्या यह काफी सजा नहीं है उस शख्स के लिए जिसने एक तख्त पर बैठकर हुकूमत की थी?

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