सैम पित्रोदा ने भारतीयों पर की थी नस्लीय टिप्पणी

लेखक: प्रमोद भार्गव (वरिष्ठ स्तंभकार)

अकसर अपने विवादित बयानों से चर्चा में रहने वाले इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सैम पित्रोदा (Sam Pitroda) एक बार फिर भारतीय नागरिकों (Indian Politics) पर त्वचा के रंग, नाक-नक्ष और शक्ल पर नस्लभेदी टिप्पणी करने के कारण चर्चा में हैं। इस बार उन्हें यह चर्चा महंगी पड़ी है। कांग्रेस ने इस टिप्पणी से न केवल किनारा किया, बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उनके द्वारा दिया त्याग-पत्र भी स्वीकार कर लिया।

पित्रोदा ने कहा था कि ‘पूर्वोत्तर भारत के लोग चीनी, पश्चिम के अरब, उत्तर के गोरे और दक्षिण भारतीय, अफ्रीकी नागरिकों जैसे लगते हैं।‘ इस बेतुके बयान के पहले किसी भी मानव या समाजशास्त्री ने भारत में इस तरह के नस्लीय विभाजन की टिप्पणी कभी नहीं की। इस कथन के आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ा नस्लीय मुद्दा बनाकर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों पर निशाना साधा और जोर देकर कहा कि ‘देशवासी त्वचा के रंग के आधार पर अपमान बर्दास्त नहीं करेंगे?

अब यह बात समझ आ गई है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने राश्ट्रपति चुनाव में द्रोपदी मुर्मु को हराने की कोषिष इसलिए की थी, क्योंकि उनकी त्वचा का रंग संवला है। कोई मुझे बताए क्या मेरे देश में चमड़ी के रंग के आधार पर लोगों की योग्यता तय होगी। ‘मोदी ने यह तल्ख टिप्पणी वारंगल में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए दी। अमेरिका में रहने वाले सैम पित्रोदा ने कभी अमेरिका या पश्चिमी देशों में हिंसा की इबारत लिखे जाने के बावजूद नस्लभेद की टिप्पणी की हो, देखने-सुनने में नहीं आया?

दरअसल पित्रोदा के ऐसे बयानों से देश की विभाजनकारी ताकतों को हवा मिलती है। चीन का साम्राज्यवादी रुख नस्ल के आधार पर पूर्वोत्तर भारत में घुसपैठ की कोशिश में लग जाता है।

भारत में अनेक स्तर पर विविधताएं हैं, लेकिन वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में एक है। इस एकता को बनाए रखने का काम भगवान राम ने उत्तर से दक्षिण और कृष्ण ने पश्चिम से पूरब की यात्रा करके की थी। इसीलिए यह विरासत हमारे धर्म और इतिहास ग्रंथों के माध्यम से राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता का पाठ पढ़ाती रही है। फलतः देश की सभी दिशाओं में रहने वाले लोग तिरंगे से लेकर राष्ट्रगान और गीत पर गर्व करते हैं और इसकी सीमाओं की सुरक्षा के लिए सेना के तीनों अंगों में शामिल होकर बलिदानी भाव से तत्पर रहते हैं। तब रंग और नस्ल के भेद कहां ठहर पाते हैं ?

वाइदवे जब भी कोई नस्ल या रंग के आधार पर घटना घटती है, तो पूर्वोत्तर के पीड़ित अपनी जड़ें रामायण और महाभारत में खोजते हैं। कुछ साल पहले देश की राजधानी दिल्ली में अरूणाचल प्रदेष के तात्कालिक कांग्रेस विधायक निदो पवित्र के बेटे निदो तनियान के विलक्षण नाक-नक्ष पर कसी फब्तियों पर उठा विवाद निदो की निर्मम हत्या पर खत्म हुआ था। यह घटना बेहद दुखद और मन-मस्तिष्क को झकझोरने वाली थी। अकसर पूर्वोत्तर के भारतीयों की विशेष शारीरिक बनावट, चेहरे-मोहरे और विचित्र अंदाज में काढ़े गए बालों की शैली को लेकर शेष भारत के लोग उन्हें चिढ़ाते व अपनानित करते।

दिल्ली के लाजपत नगर में निदो के साथ घटी घटना में उसकी हेयर स्टाइल पर कुछ दुकानदारों ने फब्ती कसी थी। इस कटाक्ष की प्रतिक्रिया स्वरूप विवाद इतना गहराया कि स्थानीय दुकानदारों ने निदो की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी। इस घटना से तय हुआ कि हम अपनी भौगोलिक स्थिति और इतिहास सम्मत जानकारियों से कितने अनजान है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि हम अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक अस्मिता और सीमाई संप्रभुता जोड़ने वाली  संस्कृत भाषा और लोक व दंत कथाओं से दूर होते चले जा रहे हैं।

निदो की हत्या के बाद दिल्ली में पूर्वोत्तर के सातों राज्यों के छात्र-छात्राएं व अन्य लोग दोषियों की गिरफ्तारी के लिए धरने पर बैठे। इसी धरने पर एक हिन्दी समाचार चैनल ने इस मुद्दे पर टॉक शो भी आयोजित कर डाला। शो में पूर्वोत्तर के कई विधार्थी उद्घोषिका द्वारा सवाल करने पर अपनी पहचान को रामायण और महाभारत के पात्रों से जोड़ रहे थे। एक छात्र ने इतिहास की पाठ्य पुस्तकों पर सवाल खड़ा करते हुए यहां तक कहा कि पूर्वोत्तर के राज्य का भूगोल व इतिहास किसी भी पाठ्य पुस्तक में शामिल नहीं है? जाहिर है, इन बुनियादी प्रश्नों के उत्तर मंच पर मौजूद तीन विषेशज्ञों में से किसी के पास नहीं थे। इस टॉक शो में उठाए गए अनुत्तरित प्रश्न इस बात का संकेत हैं कि हमें अपने देश की उस ज्ञान परंपरा से जुड़ने की जरूरत है, जिसने इतने बड़े भारतीय भू-भाग को अनेक विविधता के बावजूद जातीय स्वाभीमान एवं सांस्कृतिक एकरूपता से जोड़ा हुआ है। इस परिप्रेक्ष्य में जरूरी है कि देश में बढ़ रही खंडित मानसिकता को पाटने के लिए हम प्राचीन शास्त्रीय परंपरा के पुनरुद्धार की पहल करें ?

आज पूर्वोत्तर के जिन सात राज्यों को सात बहनों के नाम से हम जानते हैं, वे राज्य पश्चिम बंगाल और असम के विभाजन के फलस्वरूप स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आए हैं। ये छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा ,सिक्किम और मिजोरम हैं। प्रागैतिहासिक काल के पन्नों को खंगालें तो पता चलता है कि भगवान परशुराम और कार्तवीर्य अर्जुन के बीच जो भीषण युद्ध हुआ था, उसके अंतिम आततायी को परशुराम ने अरुणाचल में जाकर मारा था। अंत में यहीं के ‘लोहित क्षेत्र‘ में पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना रक्त-रंचित फरसा धोया था। बाद में स्मृति स्वरूप यहां पांच कुण्ड बनाए गए, जिन्हें समंत-पंचका रुधिर कुण्ड कहा जाता है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इस क्षेत्र में यह दंतकथा भी प्रचलित है कि इन्हीं कुण्डों में भृगुकुल भूषण परशुराम ने युद्ध में मारे गए योद्धाओं का तर्पण किया था। परशुराम यही नहीं रुके, उन्होंने शूद्र और इस क्षेत्र की जो आदिम जनजातियां थीं, उनका यज्ञोपवीत संस्कार करके उन्हें ब्राह्मण बनाया और सामूहिक विवाह किए।

महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने पूरब से पश्चिम की सामरिक और सांस्कृतिक यात्रा की। द्वारका एवं मणिपुर में सैन्य अड्डे स्थापित किए। इसीलिए इस पूरे क्षेत्र की जनजातियां अपने को रामायण और महाभारत काल के नायकों का वंशज मानती हैं। यही नहीं ये अपने पुरखों की यादें भी जीवित रखे हुए हैं। सूर्यदेव को आराध्य मानने वालीं अरुणाचल की 54 जनजातियों में से एक मिजो-मिश्मी जनजाति खुद को भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मणी का वंशज मानती हैं।

दंत कथाओं के अनुसार आज के अरुणाचल क्षेत्र स्थित भीष्मक नगर की राजकुमारी थीं। उनके पिता का नाम भीश्मक एवं भाई का नाम रुक्मंगद था। जब कृष्ण रुक्मणी का अपहरण करने गए तो रुक्मंगद ने उनका विरोध किया। परमवीर योद्धा रुक्मंगद को पराजित करने के लिए कृष्ण को सुदर्शन चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पर रुक्मणि का ह्रदय पसीज उठा और उन्होंने कृष्ण से अनुरोध किया कि वे भाई के प्राण न लें, सिर्फ सबक सिखाकर छोड़ दें। तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को रुक्मंगद का आधा मुंडन करने का आदेश दिया। रुक्मंगद का यही अर्द्धमुंडन आज सेना के जवानों की ‘हेयर स्टाइल‘ मानी जाती है। मिजो-मिश्मी जनजाति के पुरुष आज भी अपने बाल इसी तरह से रखते हैं।

दिल्ली में निदो नामक जिस युवक के बालों पर नोकझोंक हुई थी, उसके बाल इसी परंपरागत तर्ज के थे। वास्तव में वह सांवले रंग के भगवान कृष्ण द्वारा निर्मित परंपरा का निर्वाह कर रहा था, जिस कृष्ण की पूजा उत्तर भारत समेत समूचे देश में होती है। यदि वाकई देश के लोग इस लोककथा से परिचित होते तो शायद निदो पर जानलेवा हमला नहीं हुआ होता ?

मेघालय की खासी जयंतिया जनजाति की आबादी करीब 13 लाख है। यह जनजाति आज भी तीरंदाजी में प्रवीण मानी जाती है। किंतु हैरानी है कि धनुष-बाण चलाते समय ये अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। ये लोग अपने को एकलव्य का वंशज मानते हैं। यह वही एकलव्य है, जिसने द्रोणाचार्य के मांगने पर गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा दे दिया था।

इसी तरह नागालैंड के शहर दीमापुर का पुराना नाम हिडिंबा और था। यहां की बहुसंख्यक आबादी दिमषा जनजाति की है। यह जाति खुद को भीम की पत्नी हिडिंबा का वंशज मानती है। दीमापुर में आज भी हिडिंबा का वाड़ा है। यहां राजवाड़ी क्षेत्र में स्थित शतंरज की बड़ी- बड़ी गोटियां पर्यटकों के आर्कषण का प्रमुख केंद्र्र हैं। किंवदंती है कि इन गोटियों से हिडिंबा और भीम का बाहुबली पुत्र वीर घटोत्कच शतरंज खेलता था। म्यामंर की सीमा से सटे राज्य मणिपुर के जिले उखरूल का नाम उलूपी-कुल का अपभ्रंश माना जाता है। अर्जुन की एक पत्नी का नाम भी उलूपी था, जो इसी क्षेत्र की रहने वाली थी। तांखुल जनजाति के लोग खुद को अर्जुन और उलूपी का वंशज मानते हैं। ये लोग मार्शल आर्ट में माहिर माने जाते हैं। अर्जुन की दूसरी पत्नी चित्रांगदा भी मणिपुर के मैतेई जाति से थी। यह जाति अब वैश्णव बन चुकी है। असम की बोडो जनजाति खुद को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का वंशज मानती है। असम के ही पहाड़ी जिले कार्बी आंगलांग में रहने वाली कार्बी जनजाति स्वंय को सुग्रीव का वंषज मानती है।

इसी तरह कुछ साल पहले हैदराबाद के ‘सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी‘ संस्थान ने डॉ लालजी सिंह के नेतृत्व में एक अध्ययन किया था, जिसका आधार अनुवांशिकी (जेनेटिक्स) रहा था। इसके बाद दूसरा अध्ययन डीएनए की विस्तृत जांच के आधार पर किया गया था। इनसे तय हुआ है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों के पूर्वज दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदाय हैं। मानव इतिहास विकास के क्रम में यह स्थिति जैविक क्रिया के रूप में सामने आई है। इसी आधार पर लालजी सिंह ने स्पष्ट किया था कि आर्य व दक्षिण भारत की द्रविड़ (अनार्य) जातियां न तो अलग थी और न विदेशी ? ये जातियां मूल भारतीय थीं।

आर्य शब्द का जातिसूचक प्रयोग पहली बार जर्मनी विद्वान मैक्समूलर ने किया था। यदि हम दक्षिण भारतीयों का अर्वाचीन इतिहास खंगाले तो पता चलता है कि एक समय राजा ऋषभदेव के पुत्र भरत आर्यावर्त के शासक थे। उनकी आठ पुत्रियां और एक पुत्र था। भरत ने अपने जीते जी समस्त साम्राज्य को नौ बराबर भागों में विभाजित कर अपनी संततियों को बांट दिया था। तब दक्षिण भारत का भाग्य उनकी एक कुंवारी पुत्री कुमारी के हिस्से में आया।

अतएव दक्षिण भारत के मूल निवासी आर्य ही थे। तय है, हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथ लोक और दंत कथाओं में ज्ञान के ऐसे अनेक स्रोत मिलते है, जो हमें सीमांत प्रदेशों में मूल भारतीय होने के जातीय गौरव से जोड़ते है। लिहाजा जरूरी है कि हम सांस्कृतिक एकरूपता वाली इन कथाओं को पाठ्य पुस्तकों में शामिल करें? पूर्वोत्तर और दक्षिण राज्यों में रक्तजन्य जातीय समरसता के इस मूल-मंत्र से जातीय एकता की उम्मीद की जा सकती है। अतएव सैम पित्रोदा जैसे पाश्चात्य अवधारणाओं से ग्रसित खंडित मानसिकता के लोगों से देश में जातीय और नस्लीय भेद को गहरा करने में ही अपनी कुत्सित बुद्धि का प्रयोग करने में लगे रहते हैं।

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