राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता: स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
rabindranath tagore biography: रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म कलकत्ता (जिसे अब कोलकाता के नाम से जाना जाता है) में बंगला कैलेंडर के अनुसार 25 वैशाख, 1268 को देवेन्द्रनाथ ठाकुर और शारदा देवी के घर में हुआ था।
ठाकुर परिवार मूल रूप से जैसोर से था परन्तु यह परिवार लगभग उसी समय कलकत्ता में आकर बस गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस शहर की स्थापना की थी।
उनकी गणना कलकत्ता के नव कुलीन वर्ग के गण्यमान्य परिवारों में होती थी। रवीन्द्रनाथ के दादा द्वारकानाथ को उनकी अपार संपत्ति और अति उदारता के कारण “प्रिंस” की उपाधि से सम्मानित किया गया था और वह राजा राममोहन राय के सभी सार्वजनिक कार्यों में उनके कट्टर समर्थक बन गये थे।
इसी प्रकार, रवीन्द्रनाथ के पिता जो अपनी धर्मपरायणता और आस्था के कारण “महर्षि” कहलाते थे, ‘ब्रह्मवाद’ के पक्के समर्थक बन गये जिसे उपनिषदों में एकेश्वरवाद की राममोहन द्वारा प्रतिपादित परम्परा की रक्षा करने के तुल्य माना जा सकता है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पढ़ाई
रवीन्द्रनाथ का विद्यालय जीवन संक्षिप्त (1868-74), अनुल्लेखनीय और अव्यवस्थित था – उन्हें चार बार विद्यालय बदलना पड़ा और वर्ष 1874 में उन्होंने औपचारिक शिक्षा बीच में छोड़ दी। परन्तु इससे उनमें अपनी मातृभाषा में स्वयं शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा बलवती हो गई जिसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया गया।
गीत और कविताओं की दोहरी प्रतिभा उनमें बचपन से ही थी। अक्षर ज्ञान के तुरन्त पश्चात् उन्होंने अपनी कविताओं को कलमबद्ध करना शुरू कर दिया था और संगीत उन्हें घर के संगीतमय वातावरण से सहज ही मिल गया था।
जन-गण-मन और आमार शोनार बांग्ला: दो राष्ट्रगानों के जनक
रवीन्द्रनाथ में विद्यमान गीत और काव्य प्रतिभा के बारे में उनके परिवार को उनके बचपन से ही पता चल गया था। उनकी पहली कविता “अभिलाष” 1874 में “तत्वबोधिनी पत्रिका” में प्रकाशित हुई थी जिसमें इस रचना को एक बारह वर्ष के किशोर की रचना बताया गया था।
अगले वर्ष, जब वह मुश्किल से चौदह वर्ष के थे, उन्होंने ठाकुर परिवार के संरक्षण एवं तत्वावधान में नवगोपाल मित्र, राजनारायण बोस तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा आयोजित देशभक्ति और समाज कल्याण संबंधी एक सांस्कृतिक मेले, हिन्दू मेला के नौवें अधिवेशन में देशभक्ति से ओत-प्रोत अपनी एक कविता सुनाकर पहली बार सार्वजनिक रूप से अपने को एक कवि के रूप में प्रस्तुत किया।
उनके दो महत्वपूर्ण गीत अर्थात् ‘ आमार शोनार बांगला‘ और ‘जन-गण-मन‘ क्रमशः बांग्लादेश और भारत के राष्ट्र गान हैं।

गीतांजलि और नोबेल पुरस्कार की यात्रा
1913 में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उनके कविता- संग्रह “गीतांजलि” के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तो उनकी ख्याति तुरंत सारे विश्व में एक महान कवि के रूप में फैल गई।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक उपन्यासकार और लघुकथा लेखक भी थे। जब उन्होंने लघु कहानियां लिखनी प्रारंभ की थीं तब तक बंगला साहित्य में इस विधा का प्रचलन नहीं था।
उन्होंने इनमें अपने कलात्मक व्यक्तित्व की गहरी छाप छोड़ी तथा उन्हें सुंदर और जीवंत बनाया।
उनका प्रथम कहानी संग्रह 1894 में प्रकाशित हुआ। इसका शीर्षक था “छोटा गल्प”। उनके अन्य कहानी संग्रह थे: “विचित्र गल्प”, “कथा चतुष्टय”, “गल्प दशक” और “शाय”।

शांतिनिकेतन: एक अद्वितीय शैक्षिक प्रयोग
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में रवीन्द्रनाथ देश की समस्याओं के मूल कारणों में उलझे रहे। उनका यह विश्वास उत्तरोत्तर दृढ़ होता गया कि ये समस्याएं तत्कालीन दोषपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के कारण हैं।
अपने बच्चों को तत्कालीन स्कूलों में भेजने के बजाय उन्होंने सियाल्दह में अपने घर में स्कूल आरंभ किया। इसी समय उन्होंने तपोवन स्कूल की संकल्पना की, जहां स्वतंत्र वातावरण में, प्रकृति के मध्य, जीवन के साथ-साथ शिक्षण भी संभव हो सके, एक ऐसे समुदाय में जहां उपनिषदों की परम्परा के अनुसार अध्यापक गुरु और छात्र शिष्यों के रूप में हीं।
उन्होंने अपने इन विचारों को “नैवेद्य” नामक कविता में व्यक्त किया तथा वर्ष 1901 में उस आश्रम में एक स्कूल बनवाकर उसको व्यावहारिक रूप प्रदान किया जिसे उनके पिता ने बोलपुर के निकट शांतिनिकेतन में बनाकर एक सार्वजनिक न्यास को सौंप दिया था।
वर्ष 1918 में शांतिनिकेतन में उस संस्था की नींव रखी गई जो विश्व-भारती के नाम से विख्यात हुई। अगले दो वर्षों के दौरान, रवीन्द्रनाथ ने विश्व-भारती के लिए बुद्धिजीवियों का समर्थन जुटाने हेतु पूरे भारत तथा विदेश की यात्रा की।
उनके शांतिनिकेतन वापस लौटने पर डॉ. सिल्वां लेवी, जो संस्था के प्रथम विजिटिंग प्रोफेसर बने, की विशिष्ट उपस्थिति में डॉ. ब्रजेन्द्र नाथ स्याल की अध्यक्षता वाली औपचारिक बैठक में उन्होंने विश्व-भारती संस्था को सार्वजनिक संस्था बना दिया।
अगले दशक (1921-30) में रवीन्द्रनाथ का मुख्य काम विश्व-भारती की नींव को सुदृढ़ बनाना था और इस उद्देश्य हेतु उन्होंने देश-विदेश की कई बार यात्राएं कीं।
उन्होंने जिन देशों की यात्रा की, उनमें चीन तथा जापान (1924), दक्षिण अमरीका (1925), इटली, स्विट्जरलैंड, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, बाल्कन देश तथा मिस्र (1926), दक्षिण-पूर्व एशियाई देश (1927) और कनाडा (1929) शामिल थे।

दो हजार से अधिक चित्र बनाए
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का व्यक्तित्व बहुआयामी और बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न था। कविता, कथा-साहित्य, नाटक, ललित-साहित्य जैसी जिस किसी भी साहित्यिक विधा का उन्होंने प्रयोग किया उसे अलंकृत कर दिया।
वह केवल बंगला लेखक ही नहीं थे बल्कि प्रत्येक दृष्टिकोण से वह भारतीय थे।
वर्ष 1928 से 1940 की अवधि के दौरान रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने चित्रकारिता को गंभीरता से लिया और उन्होंने लगभग दो हजार चित्र बनाए।
विश्व भारती ने “चित्रलिपि” शीर्षक के अंतर्गत उनके चित्रों के प्रिंटों को दो खण्डों में प्रकाशित किया है।
स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रवाद में योगदान
ठाकुर का सम्पूर्ण जोवन राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों से ओत-प्रोत था। केवल उनकी एकान्तप्रियता और विदेशों की यात्राएं ही यदा कदा इसमें बाधक बनती थीं।
शांतिनिकेतन में अपने अन्तिम व्याख्यान, “द क्राइसिस इन सिविलाइजेशन” में ठाकुर ने मानवीय विरोध के उच्चतम स्तर पर भारत की राजनीतिक दासता का प्रतिवाद किया था।
व्यथा तथा टीस भरे शब्दों में उन्होंन स्वीकार किया कि भारत में ग्रेट ब्रिटेन के साथ आई उस देश की सभ्यता पर उनका जो भरोसा था, वह टूट गया उनकी रचनाओं में देशकाल से परे सम्पूर्ण भारत की अनेकता में एकता को भावना प्रतिविम्वित होती है।
वर्ष 1891 से 1893 की अवधि में ठाकुर ने अपनी बहुत सी रचनाएं “साधना” में प्रकाशित करवाई, एक मासिक प्रकाशन जिसकी स्थापना उन्होंने 1891 में अपने भतीजे के साथ की थी।
वर्ष 1894 से 1895 में इस पत्रिका के बंद होने तक की अल्प अवधि में वह इसके संपादक भी रहे।” साधना” के प्रकाशन का काल रवीन्द्रनाथ के लिये रचनात्मक राष्ट्रवाद का काल भी था।
उनकी देशभक्ति देश के प्रति केवल एक अमूर्त प्रेम ही नहीं रह गई थी बल्कि देश-ग्रामीण जनों, जो देश का हिस्सा थे, के प्रति प्रेम की सच्ची अनुभूति बन गई।
नाइटहुड उपाधि त्याग दी
उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से जनसाधारण को जागूत किया। वर्ष 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने, जार्ज पंचम द्वारा 1916 में उन्हें प्रदान की गई “नाइटहुड” की उपाधि का यह कहते हुए परित्याग कियाः
“अब ऐसा समय आ गया है जब इन उपाधियों से हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का निधन
ठाकुर का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा था। जुलाई 1941 के अंत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें इलाज हेतु उनके कलकत्ता आवास पर ले जाना पड़ा।
30 जुलाई, 1941 को उनका एक ऑपरेशन करना पड़ा। लेकिन डाक्टरों के भरसक प्रयास के बावजूद वह अपनी बीमारी से नहीं उबर सके और 7 अगस्त, 1941 को उनका निधन हो गया।
हुमायूं कबीर ने “टुवर्ड्स यूनिवर्सल मैन” शीर्षक के अंतर्गत ठाकुर के श्रेष्ठ निबंधों के शताब्दिक संग्रह की प्रस्तावना “इन कन्सिडरिंग टैगोर्स लाइफ वर्क” में लिखा:
“हर आदमी उनकी अद्भुत बहुमुखी प्रतिभा से बार-बार आश्चर्यचकित होता है। वह मुख्यतः कवि थे लेकिन उनकी रुचि कविता तक ही सीमित नहीं थी। अगर उनकी रचनाओं का परिमाण देखा जाये तो कुछ हो लेखक उनको बराबरी कर सकते हैं।
अपने लेखन स्तर में भी वह उस शिखर पर पहुंचे जहां महानतम व्यक्ति भी मुस्किल से पहुंच पाते हैं। उनको उपलब्धियां इतनी महान हैं कि उनकी छवि भारत के महान सपूत के रूप में उभरती है और वास्तव में यह एक ऐया महान व्यक्तित्व है जिसने समूची मानवता को सन्देश दिया।“
रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए एडवर्ड थाम्पसन ने 10 अगस्त, 1941 को ऑब्जर्वर (लन्दन) में लिखाः
“ठाकुर एक कवि, नाटककार, उपन्यासकार, आलोचक, लघु कहानी लेखक, नीति, धर्म, समाज और शिक्षा सुधारक, उपदेशक, कलाकार, एक महान अभिनेता एवं महान पत्र लेखक थे और उनमें जादुई संवादपटुता थी।”
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