1857 की क्रांति: बगावत के बीच बहादुर शाह जफर ने 12 मई को एक जुलूस निकाला। दिल्ली में जुलूस निकालना ज़फर का बहुत पसंदीदा और कारगर तरीका था, जिससे वह शानो-शौकत के साथ अपनी हुकूमत और बादशाहत का ऐलान करते थे। और 12 मई को उस बादशाहत का ऐलान करना बहुत ही जरूरी हो गया था। पिछले दिन की तरह, दिल्ली की सब सड़कें बिल्कुल खाली थीं। सिवाय कुछ गुंडों और लुटेरों के गिरोहों के।
जहीर देहलवी ने लिखा है: “हालात इतने खराब थे कि लुटेरे खाली बोरियां लिए घूम रहे थे और जिस किसी शरीफ शहरी के घर में घुस सकते थे, वहां जाकर लूटमार कर रहे थे। वह अमीरों की हवेलियों की तरफ इशारा करके कहते, देखो इसमें एक मेमसाहिब छिपी है, या उसमें एक साहिब छिपा है, और यह सुनकर सारा मजमा सिपाहियों के साथ उस घर में घुस जाता और खूब लूटमार करके अपने बोरे पूरी तरह भरकर मकान और मकानवालों को तबाही बर्बाद छोड़ जाता।
बहुत से मुगल अमीरजादों के साथ भी बदसुलूकी की गई और उनके घर लूटे गए। उनमें दिल्ली के शीया लीडर हामिद अली खां भी थे, जिन पर मुगलों को छिपाने का इल्जाम लगाया गया और उनको ज़बर्दस्ती दरबार में ले जाया गया, जहां जफर ने बीच में पड़कर उनकी जान बचाई। पिछले दिन की लगाई आग से अब तक शहर के कुछ हिस्से जल रहे थे। किले में अब इतने सिपाही घुस आए थे कि उन्होंने दरवाज़े पर अपना पहरा लगा दिया था। मौलवी मुहम्मद बाकर का कहना था कि किला अब छावनी में बदल गया था। ” सबसे ज़्यादा तबाही और व्यापारी, कपड़ा व्यापारियों के साथ हुआ।
ऐसा ही दिल्ली के मशहूर हलवाइयों के साथ हुआ, जिनकी शोहरत बिहार और अवध तक फैल चुकी थी। संवाददाता चुन्नी लाल बयान करते हैं कि “सवार ज़बर्दस्ती हलवाइयों की दुकानों में घुस आए और सारी मिठाई लूट ली।” साहूकार महाजन नारायण दास की पूरी हवेली लूट ली गई और उसका सामान निकाल लिया। मोहन लाल नाम के एक जौहरी को सिपाहियों ने अगवा कर लिया और उस पर बंदूक ताने उससे बहस करते रहे, जब तक उसने इस मुसीबत को टालने के लिए उनको दो सौ रुपए नहीं दे दिए।”