13 जून को शहर में दाखिल हुए क्रांतिकारियों  के दो दस्ते

1857 की क्रांति: अंग्रेज दिल्ली के रिज पर तो वापस आ गए लेकिन आगे की लडाई बहुत मुश्किल थी। अंग्रेजों के रिज वापसी के पहले दिन से ही बागी सिपाही रोजाना लाहौरी दरवाजे से बाहर आकर रिज पर चढ़ने की कोशिश करते। आमतौर से सब्जी मंडी की तरफ से जहां वह अंग्रेज विरोधियों के बिल्कुल सामने होते। वहां से वह ब्रिटिश मुकामों पर बेखौफी से हमले करते, खासतौर से उनकी सामने की कतारों पर, जहां बेहतर दिनों में विलियम फ्रेजर की बनवाई हुई पैलेडियन तर्ज की इमारत खड़ी थी जो अब इसके बाद के मालिक के नाम पर हिंदू राव की कोठी कहलाती थी।

लेकिन सिपाहियों की कई बार पागलपन की हद तक बहादुरी के बावजूद बार-बार गोरखे उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर देते थे। गोरखा सिपाही इस कोठी में तैनात थे और उन्होंने उसको खूब सुरक्षित और मजबूत कर रखा था। वहां से रेत के बोरों के पीछे से वह पूरी कोशिश में थे कि उसको हाथ से नहीं जाने दें। गोरखा कमांडर मेजर रीड 13 जून को घेरे के चार दिन बाद लिखता है:

“आज सुबह हमने सुना कि क्रांतिकारियों  के दो नए दस्ते शहर में दाखिल हुए हैं और वह हथियारों से लैस होकर हम पर चार बजे शाम हमला करने वाले हैं… मैं उनके लिए तैयार था, और जब वह आए तो हमने उनको अपने बीस कदम नजदीक तक आने दिया। और फिर हमने चारों तरफ से उन पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। पहाड़ी के ऊपर से कुछ सिपाहियों के साथ हमले में मेरे तीन आदमी मारे गए और ग्यारह जख्मी हुए और तीन के बाजू कट गए। वह ग्रांड ट्रंक रोड से ऊपर लाइनों में आ रहे थे और सबसे आगे सरदार बहादुर था जो बहुत खुले में था। वह अपने आदमियों को पुकार रहा था कि वह दूर रहें क्योंकि उसका इरादा बायीं ओर मुड़ने का था। वह बहुत बहादुरी से लड़े। बागी सिपाही घुड़सवार और पैदल कोई पांच हजार की तादाद में थे।

उन सिपाहियों की जवांमर्दी उनके भूतपूर्व अफसरों को अक्सर प्रभावित करती थी, लेकिन उनकी रणनीति नहीं। सिपाहियों के दस्तों का यह हुजूम शहर की दीवारों से बहुत शानदार दिखाई देता था। जहीर देहलवी का कहना है कि यह मुकाबला ‘वाकई बहुत दिलचस्प और अजीबो-गरीब था। दोनों तरफ के सिपाही अंग्रेजों के भर्ती किए हुए और अंग्रेज़ अफसरों के सिखाये हुए थे। जैसे कि यह जंग उस्तादों और उनके शागिर्दों के बीच थी। ऐसा कभी देखा न सुना था, लेकिन क्रांतिकारियों  के अनियमित हमलों और एक के बाद एक दस्ते के आने और बार-बार ब्रिटिश फौज की सामने वाली कतारों पर हमला करने की कोशिश करने से अंग्रेजों को कोई ज़्यादा नुकसान नहीं पहुंचा हालांकि वह तादाद में काफी कम थे। होडसन अपने खास अंदाज़ में बहुत खुश था और उसे अपने आप पर बहुत भरोसा था।

उसका कहना था कि ‘यह बागी बस हमें तंग करने और सारा दिन इस गर्मी में बाहर रखने में कामयाब हुए हैं। बहरहाल क्रांतिकारियों  की रणनीति उनकी तादाद का फायदा उठाने में नाकाम रही। इसकी एक वजह यह थी कि अंग्रेजी कानून के तहत किसी भी बागी सिपाही को सौ से ज़्यादा लोगों को कमांड करने की ट्रेनिंग नहीं दी गई थी, और न ही उनको सिखाया गया था कि किसी बड़े फौजी मुकाबले में किस तरह रणनीति और सुप्रबंध से काम लेना चाहिए। हालात और भी बदतर इसलिए थे कि रोज उनको फिर से वही जगह जीतनी पड़ती थी, जिस पर उन्होंने पिछले दिन कब्ज़ा किया था, क्योंकि हर रात सिपाही शहर में सोने वापस चले जाते ताकि अंग्रेजों की तोपों से सुरक्षित रहें। और इस तरह रिज का जीता हुआ हिस्सा फिर अंग्रेजों के हाथ आ जाता।

   

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